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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसहित ५ ९३००. संपहि संतकम्ममस्सिदूण द्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा--- खविदकम् मंसियलक्खणेणागतूण तिपलिदोवमिएसुप्पजिय पुणो बेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण पुब्वकोडाउअमणुस्सेसुववञ्जिय दंसणमोहणीयं खविय चारितमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय णवुंसयव दचरिमफालिं धरेदूण' हिदम्मि जहण्णदव्व होदि । संपहि एत्थ जहण्णदव्वे दुचरिमगुणसे ढिगोबुच्छागुणसंकमेण गददुचरिमफालिदव्यं च परमाणुत्तरकमण वहाव देव्वं । एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो दुवरिमफालिं धरेण द्विदो सरिस । एवमोदादव्व जाव चरिमट्ठिदिखंडयं धरेण ट्ठिदो ति । ३०१. पुणो उदयगदगुणसेढिगोवच्छा गुणसंकमेण गददव्वं च वड्डावदव्वं । एवं वड्डिण द्विदेण अण्णेगो दुरिमखंडयचरिमफालिं धरेदूण ष्ट्ठिदो सरिसो । एवमोदारेदव्व' जाव अंतरच रिमफालिगदसमओ आवलियं अपतो रति । पुणो तत्थ हविय परमाणुत्तरकमेण वड्डावदेव्व जाव गुणसंकमेण गददव्वमेतं तिन्हं वेदाणं णवुंसयवेदसरूवण उदयमागंतूण गदगुणसेढिगोषुच्छदव्वं च वडिदं ति । एवं वडिदूण द्विदो अण्णेगो तदणंतर हे टिमसमए द्विदो च सरिसो । एतो हेहा हेद्विमतिण्णिगुणसेढिगोबुच्छस हिदगुणसंकमदव्वम्मि उवरिमा दोगुणसेढिगोवच्छाओ ૧૮૮ ९ ३००. अव सत्कर्मकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैक्षपितकर्मा की विधिसे आया और तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ । फिर दो छयासठ सागर कालतक भ्रमण कर मिध्यात्व में गया । अनन्तर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर अनन्तर जो चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत हो नपुंसक वेदको अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है उसके नपुंसकवेदका जघन्य द्रव्य होता है । अब यहां जघन्य द्रव्य में उपान्त्य गुणश्रेणिकी गोपुच्छा और गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई उपान्त्य फालिके द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो द्विचरम फालिको धारण कर स्थित है । इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डकको धारण कर स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये । ३०१. अनन्तर उदयको प्राप्त हुई गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको और गुणसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है । इस प्रकार अन्तरकरणकी अन्तिम फालिके समय से एक आवलि पहले तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहां ठहरा कर गुणसंक्रमके द्वारा जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हो उसको, नपुंसकवेदरूपसे उदयमें आये हुए तीनों वेदोंके द्रव्यको और गुणश्रेणि गोच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो उससे अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें स्थित है। अब इससे नीचे तीन गुणश्रेणिगोपुच्छाओंके साथ गुणसंक्रमके द्रव्यमेंसे ऊपरकी दो गुणश्रेणिकी गोपुच्छाओंको घटाने पर जो द्रव्य शेष १. ता०प्रतौ चरिमफालीए धरेदूण' इति पाठः । २ आ०प्रसौ 'आवलिय अपतो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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