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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १८१ ___१७४. संपहि तिसमयकालहिदियाणं दोण्हं गोवुच्छाणमुवरि परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि वेगोवुच्छविसेसो' पयदगोवुच्छाहितो एगसमयमोकड्डिददव्वं तत्तो तम्मि चेव समए विज्झादसंकमेण गददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिमाणहिदेण अण्णेगो जीवो जहण्णसामित्त विहाणेणागंतूग समयूणवेछावड्डीओ भमिय मिच्छत्तं खविय दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ धरेदूण हिदो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेणेदस्सुवरि दोहि सत्कर्मस्थानसे कितना अन्तर है यह उत्पन्न करके बतलाया गया है। प्रथम स्पर्धकके प्रत्येक सत्कर्मस्थानमें चार गोपुच्छाएँ होती हैं-अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा, अपूर्वकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा, प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोच्छा । यहाँ उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानसे प्रयोजन है, इसलिए इनमें जो गोपुच्छाएँ उत्कृष्ट सम्भव है वे ली गई हैं। अब द्वितीय स्पर्धकके जघन्य सत्कर्मस्थानमें कितनी गोपुच्छाएँ होती हैं यह बतलाते हैं । दो अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ, दो अपूर्वकरण गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ, दो प्रकृतिगोपुच्छाएँ और दो विकृतिगोपुच्छाएँ ये सब अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणि गोपुच्छाओंको छोड़कर जघन्य ली गई हैं। अब पूर्वोक्त चार गोपुच्छाओंके साथ इन आठ गोपुच्छाओंकी तुलना करनेपर प्रथम स्पर्धकके अन्तिम सत्कर्मसम्बन्धी अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा और द्वितीय स्पर्धकके प्रथम जघन्य सत्कर्मकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी अन्तिम गोपुच्छा सो ये दोनों समान होती हैं, इसलिये इन दो गोपुच्छाओंको अलग कर दिया है। अब रही प्रथम स्पध कके अन्तिम उत्कृष्ट सत्कर्मकी तीन गोपुच्छाएँ और द्वितीय स्पध कके जघन्य प्रथम सत्कर्मकी सात गोपुच्छाएँ सो इन सातमेंसे अनिवृत्तिकरण गुणश्रणि गोपुच्छाको छोड़कर शेष छह गोपुच्छाएँ उक्त तीन गोपुच्छाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं, अतः तीन गोपुच्छाओंका असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य बच जाता है। पर अभी द्वितीय स्पर्धकके प्रथम जघन्य सत्कर्मकी एक अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा अछूती है, अतः इसके द्रव्यमेंसे बाकी बचे हुए असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यके कम कर कर देने पर असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य शेष बच रहता है जो प्रथम स्पर्धकके अन्तिम उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके द्रव्यसे अधिक है । इस प्रकार प्रथम स्पर्धकके अन्तिम उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके द्रव्यमें और द्वितीय स्पर्धकके जघन्य प्रथम सत्कर्मस्थानके द्रव्यमें कितना अन्तर है इस बातका पता लग जाता है। आगे भी इसी क्रमसे पिछले उत्कृष्ट स्थानसे अगले जघन्य स्थानके का विचार कर लेना चाहिये। यहाँ कारणका साङ्गोपाङ विचार मलमें किया ही है, इसलिये वहाँसे जान लेना चाहिये। ६१७४. अब तीन समयकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंके ऊपर एक एक परमाणु के क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा दो गोपुच्छविशेष, प्रकृत गोपुच्छाओंमेंसे एक समयमें अपकृष्ट हुआ द्रव्य और उन्हीं गोपुच्छाओंमेंसे उसी एक समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्वके विधानके अनुसार आकर एक समय कम दो छयासठ सागर कालतक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो गोपुच्छाओंका धारक अन्य एक जीव समान है। अब इसको लेकर एक परमाणु, दो १.प्रा०प्रती 'वडीहि चे गोपुच्छविसेसो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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