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________________ १८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वड्डीहि वेगोवुच्छविसेसा' एगसमयमोकड्डिदृण विणासिददव्वं विज्झादसंकमेण गददव्वं च वड्दावेदव्वं । एवं वड्विदूण हिदेण अण्णेगो दुसमयणवेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं खवेदूण तिसमयकालहिदिगो दोगोवुच्छाओ धरेदूण हिदजीवो सरिसो। संपहि एदस्स दव्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण दोगोवुच्छ विसेसा पयदगोवुच्छासु एगवारमोकड्डिददव्वं परपयडिसंकमण गददव्वं चे दोहि वड्डीहि वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो तिसमयूणवेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं खविय दोणिसेगे तिसमयकालहिदिगे धरेदृण हिदजीवो सरिसो। संपहि इमं घेत्तण पुव्वभणिदबीजावहभबलेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव विदियछावहीए अंतोमुहुत्तमुबरिदं ति । पुणो तत्थ दृविय परमाणुत्तरादिकमेण दोहि बड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव पढमबारवड्डिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहितो दुगुणमेत्तगोवुच्छविसेसा अंतोणुहुत्तमोकड्डिदूण पयदगोवुच्छाए विणासिददव्यं च बड्डाविदं ति । पुणो सव्वजहण्णसम्मत्तकालभंतरे विज्झादसंकमण गददव्वमेत्तं च वढावेदव्वं । एवं वड्विदेण अवरेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण पढमछावहिं भमिय पुव्वं सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए दसणमोहक्खवणं पट्टविय मिच्छत्तं खविय दोणिसेगे तिसमयकालट्ठिदिगे धरेदूण हिदजीवो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वेवड्डीहि दोगोवुच्छविसेसमेत्तं एगवारमोकड्डिदूण परमाणु आदिके क्रमसे इसके ऊपर दो वृद्धियोंके द्वारा दो गोपुच्छविशेष, एक समयमें अपकर्षण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और विध्यात संक्रमणके द्वारा संक्रान्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ दो समय कम दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षपण करके, तीन समयकी स्थितिवाले दो गोपुच्छाओंका धारक एक अन्य जीव समान है। अब इसके द्रव्यके ऊपर भी एक एक परमाणके क्रमसे दो गोपुच्छविशेष, प्रकृति गोपुच्छाओंमें एकवार अपकृष्ट हुआ द्रव्य और अन्य प्रकृतिमें संक्रमणके द्वारा गया हुआ द्रव्य दो वृद्धियोंके द्वारा बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ तीन समयकम दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंका धारक अन्य एक जीव समान है। अब इस द्रव्यको लेकर पहले कहे गये मूल कारणकी सहायतासे बढ़ाकर तब तक उतारते जाना चाहिये जब तक दूसरे छयासठ सागरमें एक अन्तर्मुहूर्त बाकी रहे। फिर वहाँ ठहरकर एक-एक परमाणुके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा उसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक प्रथमबार बढ़ाये हुए अन्तर्मुहूर्त प्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे दुगुने गोपुच्छविशेष और अन्तर्मुहूर्तमें अपकर्षण करके प्रकृत गोपुच्छामेंसे विनष्ट हुए द्रव्यकी वृद्धि हो। फिर इसके बाद सबसे जघन्य सम्यक्त्वके कालके अन्दर विध्यातसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त हुए द्रव्यमात्रकी वृद्धि करनी चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्वकी प्रक्रियाके अनुसार प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके फिर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंका धारण करके स्थित हुआ जीव समान है। अब इसको लेकर एक परमाणु आदिके क्रमसे २. ता०प्रतौ 'वड्डीहि चे (व) गोपुच्छविसेसा' आ०प्रतौ 'वड्डीहि चे गोपुच्छविसेसा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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