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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जाव गच्छदि ताव एदेहि परिणामेहि कीरमाणं. गुणसेढिदव्वं सरिसं चेव । कुदो ? साहावियादो । पणो एत्तियमद्धाणं गंतूण जो हिदो परिणामो सो विसेसाहियपदेसग्गस कारणं । एवं पणेदव्वं जाव उक्कस्सपरिणामट्ठाणे त्ति । २८९. संपहि एत्थ विसेसाहियपदेसकारणपरिणामहाणाणि चेव उचिणिदण तस्सरिससेसासेसपरिणामहाणाणि अवणिय एदेसिमुचिणिदूण गहिदपरिणामाणमपुव्वपढमसमयम्मि परिवाडीए रचणाए कदाए एदे वि असंखेजलोगमेत्ता परिणामवियप्पा होति । एवं विदियसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति ताव द्विदपरिणामपंतीसु पदेसग्गविणाससंखं पडि समाणपरिणामाणमवणयणं काऊण तत्थ तं पडि विसरिसपरिणामाणं चेव रचणा कायव्वा । संपहि पयडिगोवुच्छाए उवरि परमाणुत्तरादिकमेण अणंता परमाणू वड्ढावेदव्वा । एवं वड्डाविय हिदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण पुणो अपव्वकरणपढमसमयविदियपरिणामेण गुणसेटिं कादण पणो विदियसमयप्पहुडि सव्वजहण्णपरिणामेहि चेव गुणसेटिं करिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण द्विदो सरिसो। ___$ २९०. एवमेदेण बीजपदेण जाणिदूण वड्ढाव दव्वं जाव अपव्वगुणसेढिदव्वमुक्कस्सं जादं ति । एवं वढिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुणो अपव्वपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ ति उक्कस्सपरिणामेहि चेव गुणसेटिं द्वारा का जानेवाली गुणश्रेणिका द्रव्य समान ही है, क्योंकि एसा स्वभाव है। फिर इतना ही स्थान जाकर जो परिणाम स्थित है वह विशेष अधिक प्रदेशोंका कारण है । इस प्रकार उत्कृष्ट परिणामस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। ६२८९. अब यहां विशेष अधिक प्रदेशोंके कारणभूत परिणामस्थानोंको ही संग्रह कर तथा उन्हींके समान बाकीके सब परिणामस्थानों को निकाल कर और इनका संग्रह करके ग्रहण किये गये इन सब परिणामोंका अपूर्वकरणके प्रथम समयमें परीपाटीसे रचना करने पर ये परिमाणविकल्प भी असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । इस प्रकार दूसरे समयसे अन्तिम समय तककी स्थापित की हुई परिणामोंकी पंक्तिमेंसे, विशेष अधिक प्रदेशोंके कारण भूत असंख्यात असमान परिणामोंकी रचना करनी चाहिये तथा इन्हीं के समान परिणामोंको छोड़ देना चाहिये। अब प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर उत्तरोत्तर एक-एक परमाणु के क्रमसे अनन्त परमाणुओंको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर फिर अपूर्वकरणके प्रथम समयवर्ती दूसरे परिणामके द्वारा गुणश्रेणि करके फिर दूसरे समयसे लेकर सबसे जघन्य परिणामोंके द्वारा ही गुणश्रेणि करके एक समय की स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है। ६२९०. इस प्रकार इस बीज पदके अनुसार जानकर अपूर्वकरणको गुणश्रेणिके द्रव्यके उत्कृष्ट होनेतक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर फिर अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम सयय तक उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा ही गुणश्रीणिको करके एक समयकी स्थिति १. ता. प्रतौ 'गहिदपरिणायमपुव्व' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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