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________________ १४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ । ____ १४०. संपहि एसा विगिदिगोवुच्छा पगदिगोवुच्छादो असंखे०गुणा । कुदो एदं णव्वदे ? तंतजुत्तीदो। तं जहा-वेछावहीओ हिंडिदण दंसणमोहक्खवणमाढविय जहाकमेण अधापवत्तकरणं गमिय अपुवकरणपारंभपढमसमए मिच्छत्तदव्वं गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु संकामेदि । कुदो? साभावियादो। तक्काले पयडिगोवुच्छाए गुणसंकमभागहारेण खंडिदाए तत्थेयखंडं परपयडिसरूवेण गच्छदि । एवं जाव अपुव्वकरणपढमहिदिखंडयस्स दुचरिमफालि त्ति गुणसंकमेण पयडिगोवुच्छाए वओ चेव, ओकड्डणाए पदिददव्वस्स संकामिजमाणदव्वादो असंखेगुणहीणत्तणेण पहाणत्ताभावादो। असंखेजगुणहीणत्तं कुदो णव्वदे ? गुणसंकमभागहारादो ओकड्डुक्कड्डणभाग जघन्य सत्कर्मके स्वामित्व समयमें प्राप्त होता है उसे विकृतिगोपुच्छा क्यों नहीं कहा जाता ? सो इसका यह समाधान किया है कि वह द्रव्य अपकर्षण भागहारसे प्राप्त होता है और पहले यह बतला आये हैं कि अपकर्षण भागहारसे प्राप्त हुए द्रव्यके कारण विकृति नहीं आती, अतः इसका अन्तर्भाव प्रकृतिगोपुच्छामैं ही हो जाता है। इस प्रकार विकृतिगोपुच्छाके स्वरूपका विचार करके अब इसके प्रमाणका विचार करते हैं। संचित द्रव्य डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण है। अब यह देखना है कि १३२ सागर कालके भीतर इसमेंसे अधःस्थिति गलनाके द्वारा और पर प्रकृति संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेके बाद कितना द्रव्य बचता ढगणहानि गणित समयप्रबद्धमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग दो और जो शेष आवे उसमें १३२ सागरके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणनानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग दो। ऐसा करनेसे जो लब्ध आवे वह शेष द्रव्यका प्रमाण होता है। पर यह विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण नहीं है, इसलिये उसे प्राप्त करनेके लिये इस शेष बचे हुए द्रव्यमें अन्तिम फालिका भाग दिया जाय। ऐसा करनेसे विकृतिगोपच्छाका प्रमाण आ जाता है। यहां इतना विशेष समझना कि विकृतिगोपुच्छाका यह स्वरूप और प्रमाण जघन्य सत्कर्मकी अपेक्षासे कहा है। $ १४०. यह विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगुणी है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना । समाधान-शास्त्रानुकूल युक्तिसे । उसका खुलासा इस प्रकार है-दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके क्रमसे अधःप्रवृत्तकरणको बिताकर, अपूर्वकरणको प्रारम्भ करनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यको गुणसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त करता है, क्योंकि ऐसा करना स्वाभाविक है। उस समय गुणसंक्रम भागहारके द्वारा प्रकृतिगोपुच्छामें भाग देनेपर लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्य परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त होता है । इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फाली पर्यन्त गणसंक्रमके द्वारा प्रकृतिगोपुच्छाका व्यय ही होता है, क्योंकि अपकर्षणके द्वारा पतनको प्राप्त होनेवाला द्रव्य संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये यहां उसकी प्रधानता नहीं है। शंका--संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अपकर्षणके द्वारा पतनको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होता है यह किस प्रमाणसे जाना ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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