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________________ गा० २२ ] उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं १४१ $ १३९. संपहि विगिदिगो वुच्छपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा - दिवडगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धे ओकडकड्डणभागहारेण गुणिदवे छावद्विअण्णोष्णन्भत्थरासिणा' ओट्टिदे अधडिदिगलणाए परपयडिसंकमेण च फिट्टावसेसदव्वं होदि । पुणो एदमि चरिमफालीए खंडिदे विगिदिगोवुच्छदव्वं होदि । का विगि दिगोवुच्छा ? अपुव्यअणियकिरणे कीरमाणेसु जाणि हिदिखंडयाणि पदिदाणि तेसिं चरिमफालीसु णिवदमाणासु जं सामित्तसमए पदिददव्वं सा विगिदिगोबुच्छा | दुचरिमा दिफालीसु पदमाणासु अहिकयगोवुच्छाए पदिददव्वं विगिदिगोवु च्छा किण्ण होदि ? ण, तस्स भागहारेण आगदत्तेण पयडिगोबुच्छाए पवेसादो । $ १३९. अब विकृति गोपुच्छाका प्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार है - डेढ़ गुणहानि गुणित एक समयप्रबद्ध में अपकर्षण उत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देने पर अधःस्थितिगलनाके द्वारा और परप्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा नष्ट होकर शेष बचे सब द्रव्यका प्रमाण होता है । फिर इसमें अन्तिम फालिका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य होता है । 1 शंका — विकृतिगोपुच्छा किसे कहते हैं । समाधान - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके करने पर जिन स्थितिकाण्डकों का पतन हुआ उनकी अन्तिम फलियों का पतन होने पर स्वामित्वके समय में जो द्रव्य पतित हुआ उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं । शंका- द्विचरम आदि फालियों का पतन होते समय विवक्षित गोपुच्छा में जो द्रव्य पतित होता है वह विकृतिगोपुच्छा क्यों नहीं होती ? समाधान — नहीं, क्योंकि अपकर्षण भागहार के द्वारा आया हुआ होने के कारण उसका अन्तर्भाव प्रकृतिगोपुच्छा में ही हो जाता है । विशेषार्थ — पहले हम विकृतिगोपुच्छाका उल्लेख कर आये हैं पर वहां उसका विशेषरूपसे विचार नहीं किया है, इसलिये यहां उसके स्वरूप और प्रमाण पर विशेष प्रकाश डाला जाता है। विकृतिका अर्थ है विकारयुक्त और गोपुच्छाका अर्थ है, गायकी पूंछ । तात्पर्य यह है कि गायकी पूंछ उत्तरोत्तर पतली होती हुई एकसी चली जाती है पर रोगादिक अन्य कारणोंसे बीच में या अन्यत्र वह मोटी हो जाय तो वह गोपुच्छा विकार युक्त कही जाती है । इसी प्रकार प्रकृत में जो निषेक रचना होती है वह गायकी पूंछके समान होनेसे उसे प्रकृतिगोपुच्छा कहते हैं । अब यदि किसी कारणसे उसमें विकार पैदा होकर उसका वह क्रम न रहे तो जितना उसमें विकारका भाग है वह विकृतिगः पुच्छा कहलाती है। मुख्यतः यह विकृतिगोपुच्छा स्थितिकाण्डकघात के होने पर अन्तिम फालिके पतनसे बनती है, इसलिये यहां विकृतिगोपुच्छाका लक्षण लिखते हुए यह बतलाया है कि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों से स्थितिकाण्डकोंका घात होते हुए उनकी अन्तिम फालियोंका जितना द्रव्य जघन्य सत्कर्मके स्वामित्व के समय में प्राप्त होता है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं । यहां यह भी प्रश्न किया गया कि द्विचरम आदि फालियों के द्रव्यका पतन होने पर उसमें जो द्रव्य १. ० प्रतौ 'अण्णोष्ण भत्थरासिणो' इति पाठः । २. भा०प्रतौ 'विगिदिगोपुच्छं दव्वं' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ ' पढमासु' इति पाठः । ४. ता० आ० प्रत्योः 'ण च तस्स' इतिपाठः । ५. आ० प्रतौपदेसादो' इतिपाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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