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________________ १४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जं तुब्भेहि भणिदं तं ण घडदे । किं च पयडिगोवुच्छा विज्झादभागहारेण वेछावट्ठिमेत्तकालं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु पडिसमयं संकेता। एदेण विकारणेण पयदिगोवुच्छाए जहाणिसित्तसरूवेण जावट्ठाणमिदि ? तोक्खहिं एवं घेत्तव्यं-ओकड्डक्कड्डणाहि जणिदआय-व्वएहि परपयडिसंकमजणिदवयेण च ण पयडिगोवुच्छत्तं फिट्टदि, विगिदिगोवुच्छदव्वादो गुणसेढिदव्वादो च वदिरित्तासेसदव्वस्स पगडिगोवुच्छा त्ति गहणादो। कहा है वह घटित नहीं होता। दूसरे, विध्यातभागहारके द्वारा दो छयासठ सागर तक प्रकृतिगोपुच्छाका प्रति समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण होता रहता है, इसलिये इस कारणसे भी प्रकृतिगोपुच्छाका यथानिक्षिप्तरूपसे अवस्थान नहीं बनता ? । समाधान-तो फिर ऐसा लेना चाहिये-अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जो आय-व्यय होता है और परप्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा जो व्यय होता है उनसे प्रकृतिगोपुच्छपना नष्ट नहीं होता, क्योंकि विकृतिगोपुच्छाके द्रव्यसे और गुणश्रेणिके द्रव्यसे भिन्न जो वाकीका द्रव्य है उसे प्रकृतिगोपुच्छा रूपसे माना गया है। विशेषार्थ—पहले प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण बतला आये हैं उसपर शंकाकारका यह कहना है कि इसे प्रकृतिगोपुच्छा क्यों माना जाय। तब इसका यह समाधान किया कि इसमें स्थितिकाण्डकघातसे प्राप्त द्रव्यका ग्रहण नहीं किया है किन्तु केवल उत्कर्षणसे प्राप्त होने वाले द्रव्यकी जो यथाविधि रचना होती है उसीका ग्रहण किया है, इसलिये इसे प्रकृतिगोपुच्छा मानने में कोई आपत्ति नहीं। इस पर फिर यह शंका की गई कि निषेकस्थितिके निषेकोंकी जिस क्रमसे रचना होती है उत्कर्षणके द्वारा वह नष्ट भ्रष्ट हो जाती है, अतः उसे प्रकृतिगोपुच्छा मानना ठीक नहीं है। इसपर आय और व्ययकी समानता दिखला कर यह सिद्ध किया गया कि इससे प्रकृतिगोपुच्छा जैसीकी तैसी बनी रहती है। इस पर फिर शंका हुई कि अपकर्षण और उत्कर्षण द्वारा सदा आय और व्यय समान ही होता है ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है। उदाहरणार्थ समान परिणामवाले दो क्षपितकर्माश जीव लीजिये। उनमें से एकके अपकर्कण द्वारा एक समयप्रबद्धकी हानि और दसरेके उत्कर्षण द्वारा। समयप्रबद्धकी वृद्धि देखी जाती है, अतः यह नियम तो रहा नहीं कि समान परिणाम होनेसे आय और व्यय समान ही होता है। दूसरे अपकर्षित होनेवाले द्रव्यका सब निषेकोंमें निक्षेप न होकर एक आवलिप्रमाण या कभी कभी संख्यात पल्यप्रमाण निषेकोंको छोड़कर निक्षेप होता है, इसलिये भी सब निषेकोंमें आय और व्यय समान ही होता है यह कहना नहीं बनता। तीसरे त्रसपर्यायमें परिभ्रमण करते हुए जब यह जीव १३२ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहता है तब इसके मिथ्यात्वकी प्रकृतिगोपुच्छा प्रति समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित होती रहती है, इससे भी स्पष्ट है कि प्रकृतिगोपुच्छाकी जिस प्रकार रचना होती है उस प्रकार वह नहीं रहती। तब इस शंकाका समाधान करते हुए यह बतलाया है कि इस प्रकार अपकर्षण या उत्कर्षणसे जो न्यूनाधिक आय-व्यय होता है या सजातीय अन्य प्रकृतिमें संक्रमण होनेसे जो व्यय होता है उससे प्रकृतिगोपुच्छामें भले ही थोड़ी बहुत न्यूनाधिकता हो जाय पर इससे प्रकृतिगोपुच्छाका विनाश नहीं होता। तात्पर्य यह है कि विकृतिगोपुच्छाके द्रव्यके और गुणश्रेणिके द्रव्यके सिवा शेष सब द्रव्य प्रकृतिगोपुच्छाका द्रव्य माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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