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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १४३ हारस्स असंखे० गुणत्तणेण । णचेदमसिद्ध, उबरि भण्णमाणअप्पाबहुगादो तदसंखेजगुणत्तसिद्धीए। ____६ १४१. संपहि पढमट्ठिदिकंडयचरिमफालीए णिवदमाणाए अहियारगोवुच्छाए पदिददव्वं विगिदिगोवुच्छा णाम, ओकड्ड क्कड्डणाए विणा हिदिकंडएड आगददव्वस्सेव गहणादो। तस्स पमाणाणुगम कस्सामो। तं जहा-एगमेइंदियसमयपबद्ध दिवड्डगुणहाणिपदुप्पण्णं दृविदं । एदस्स' हेढा वेछावद्विअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागासु विरलिय विगुणिय अण्णोण्णगुणिदासु समुप्पण्णरासिमंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डुक्कड्डणभागहारगुणिदं ठविय पुणो उवरिमअंतोकोडाकोडीअभंतरणाणागुणहाणिसलागासु विरलिय दुगुणिय अण्णोण्णपदुप्पण्णासु पदुप्पण्णरासिम्हि रूवूणम्हि पलिदो० संखे०भागमेत्तद्विदिकंडयभंतरणाणागुणहाणिसलागाणं रूवणण्णोण्णब्भत्थरासिणा ओवट्टिदम्हि जं लद्धं तेण दिवढगुणहाणिं गुणिय एदम्मि पुव्वं ठविदभागहारस्स पासे कदे पढमद्विदिकंडयादो समुप्पण्णविगिदिगोवुच्छा समुप्पजदि । एसा जहण्णविगिदिगोवुच्छा पगदिगोवुच्छादो गुणसंकमेण परपयडिं गच्छमाणदव्वस्स असंखे०भागो । कुदो ? गुणसंकमभागहारादो अण्णोण्णब्भासजणिदरासीए असंखेजगुणत्तादो । समाधान- क्योंकि गुणसंक्रमके भागहारसे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार असंख्यातगुणा है। और यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसे अपकर्षण उत्कर्णण भागहारका असंख्यातगुणापना सिद्ध है। ६१४१. यहां प्रथमस्थितिकाण्डकी अन्तिम फालीका पतन होते समय अधिकृत गोपुच्छामें जो द्रव्य पतित होता है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके बिना स्थितिकाण्डकके द्वारा आये हुए द्रव्यका ही यहां ग्रहण किया गया है। उस विकृतिगोपच्छाका प्रमाणानुगम करते हैं । वह इस प्रकार है-एकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके स्थापित करो। उसके नीचे दो छयासठ सागरके भीतरकी नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके और उन विरलिन अंकोंको द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्णण-उत्कर्षण भागहारसे गुणा करके स्थापित करो। फिर ऊपरकी अन्तःकोडाकोडीके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिको द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो एक कम उसमें पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थितिकाण्डकोंके भीतरकी नाना गणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाग दो जो लब्ध आवे उससे डेढ़ गुणहानिको गुणा करके पूर्वमें स्थापित भागहारके समीपमें इसको स्थापित करने पर प्रथम स्थितिकाण्डकसे उत्पन्न हुई विकृतिगोपुच्छा होती है। यह जघन्य विकृतगोपुच्छा प्रकृतिगोपच्छासे गणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि गणसंक्रमण भागहारसे अन्योन्यान्याससे उत्पन्न हई राशि असंख्यातगणी होती है। अब दूसरे स्थितिकाण्डकका पतन होते समय जो विकृतिगोपुच्छा उत्सन्न होती है १. प्रा०प्रतौ 'इविदएदस्स' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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