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________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ सरिसं होदि त्ति पुणरुत्तं । संपहि दोफालिक्खवग तिण्णिफालिक्खवग च एगवारेण पक्खेउत्तरजोग णीदे अपुणरुत्तट्ठाणं होदि, पुबिल्लचरिमफालिट्ठाणादो दोहि चरिमफालीहि तिहि दुचरिमफालीहि एगण तिचरिमफालिविसेसेण च अहियत्तुवलंभादो। पुव्वं सरसोकदचरिमफालिट्ठाणादो उवरि दोधरिमफालिहाणाणि तिण्णिदुचरिमफालिट्ठाणाणि च बोलिय चउत्थदुचरिमफालिहाणं अपावेदूण अंतराले उप्पण्णमिदि भणिदं होदि । ६४१०. संपहि इममेत्येव हविय एगफालिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं गीदे उवरिमगंथट्ठाणस्सुवरिमतिण्णिअत्थट्ठाणाणि बोलेदूण चउत्थमत्थट्ठाणमपाविय दोण्हं पि विच्चाले विदियपरिवाडीए अण्णमत्थहाणमुप्पजदि । गंथत्थट्टाणाणं को विसेसो ? ग्रंथः सूत्रं तेन साक्षादुक्तस्थानानि ग्रंथस्थानानि । अर्थस्थानानि अर्थात्सामर्थ्यादुत्पन्नानि । सूत्रेण सूचितस्थानानि अर्थस्थानानोति यावत् । एवं पक्खेउत्तरकमेण एगफालिक्खवगं वह्वाविय अत्थहाणाणि उप्पादेदूण णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगस्स हेहा तिभागजोगं पत्तो त्ति। ६ ४११. पुणो तत्थ सवेददुचरिम-चरिम समएसु पक्खेवुत्तरतिभागजोगेण तिचरिमसमए तिभागजोगपक्खेवभागहारं रूऊणधापवत्तभागहारेण खंडेदण तत्थ एगखंडं तिगुणं सादिरेयं तिरूवाहियं हेढा ओदरिदूण हिदजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए भौर तीन फालिक्षपकके एक बार में प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अपुनरुक्त स्थान होता है; क्योंकि पहलेके चरम फालिस्थानसे दो चरम फालि, तीन द्विचरम फालि और एक त्रिचरम फालिविशेषरूपसे अधिकता उपलब्ध होती है। पहले समान किये गये चरम फालिस्थानसे ऊपर दो चरम फालिरथानोंको और तीन द्विचरम फालिस्थानोंको बिताकर चतुर्थ द्विचरम फालिस्थानको नहीं प्राप्तकर अन्तरालमें उत्पन्न हुआ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। $ ४१०. अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर उपरिम ग्रन्थस्थानके उपरिम तीन अर्थस्थानोंको बिताकर चतुर्थ अर्थस्थानको नहीं प्राप्त कर दोनोंके ही मध्यमें द्वितीय परिपाटीके अनुसार अन्य अर्थस्थान उत्पन्न होता है । शंका-ग्रन्थस्थान और अर्थस्थानमें क्या विशेष है ? .समाधान-ग्रन्थ सूत्रको कहते हैं। उसके आश्रयसे साक्षात् कहे गये स्थान ग्रन्थस्थान कहलाते हैं। तथा अर्थसे अर्थात् सामर्थ्यसे उत्पन्न हुए स्थान अर्थस्थान कहलाते हैं। सूत्रसे सूचित हुए स्थान अर्थस्थान हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे एक फालिक्षपकको बढ़ाकर अर्थस्थानोंको उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट योगके नीचे त्रिभाग योगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। . ६४११. पुनः वहां पर सवेदभागके द्विचरम और चरम समयमें तथा प्रक्षेप अधिक त्रिभाग योगसे त्रिचरम समयमें त्रिभाग योगके प्रक्षेप भागहारको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजितकर वहां तिगुणे साधिक एक खण्डको तीन रूप अधिक नीचे उतरकर स्थित हुए योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान एक फालिस्वामीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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