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________________ ३६४ जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुणो उक्कस्सजोगट्ठाणादो दोफालिक्खवगे दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तमोदिण्णे तिण्णिफालिक्खवगे च तिभागूणुकस्सजोगादो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तमोदिण्णे दगुणअधापवत्तभागहारमेत्तगंथहाणाणि पल्लट्ठति । एवं पल्लट्टाविय पुणो दोफालिक्खवगे तिण्णिफालिक्खवगे च एगवारेण पक्खेउत्तरजोगणीदे दोगत्यहाणाणि तिणि दुचरिमफालिहाणाणि च बोलेदूण चउत्थमपाविय दोहं अंतराले तिचरिमफालिविसेसट्ठाणमुप्पादि। ४१३. संपहि इमे दो वि क्खवगे एत्थेव हविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्ढावेदव्यो जाउक्कस्सजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविय पुणो गंत्थट्ठाणेण सरिसं करिय द्विदट्ठाणादो सवेदचरिमसमए उक्कस्सजोगेण तिचरिमसमए तिभागूणुक्कस्सजोगेण दुचरिमसमए वि उक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवहिदखवगट्ठाणं विसेसाहियं,चडिदद्धाणमेत्तदचरिम-तिचरिमफालीहि अहियत्तुवलंभादो। पुणो एदाओ चरिमफालिपमाणेण करिय चरिमफालिसलागमेत्तजोगहाणाणि एगफालिक्खवग हेढा ओदारिय तिण्णिफालिक्खवग उक्कस्सजोगहाणादो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तं दोफालिक्खवगे दरूऊणअधापवत्तभागहारं हेहा ओदिण्णे पुव्वं णियत्ताविदगत्थट्टाणमुप्पजदि । पुणो दुचरिम-तिचरिमसमयसवेदेसु पक्खेउत्तरजोग णीदेसु पुव्वं णियत्ताविदमत्थट्ठाणमुप्पञ्जदि। ४१४. संपहि इमे एत्थेव दृविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरादिकमेण इस प्रकार उतारकर पुनः उत्कृष्ट योगस्थानसे दो फालिक्षपकके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र उतारने पर और तीन फालिक्षपकके त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र उतारने पर द्विगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थान बदलते हैं। इस प्रकार बदलवाकर पुनः दो फालिक्षपकके और तीन फालिक्षपकके एक बारमें प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर दो ग्रन्थस्थानोंको और तीन द्विचरम फालिस्थानोंको बिताकर चतुर्थको नहीं प्राप्तकर दोनोंके अन्तरालमें विचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होता है। ४१३, अब इन दोनों क्षपकोंको यहीं पर स्थापितकर पुनः एक फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर पुनः ग्रन्थस्थानके समान करके स्थित हुए स्थानसे सवेद भागके चरम समयमें उत्कृष्ट योगसे त्रिचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे और द्विचरम समयमें भी उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समयमें अवस्थित क्षपकस्थान विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम और त्रिचरम फालियोंके द्वारा अधिकता उपलब्ध होती है। पुनः इनको चरमफालिके प्रमाणसे करके चरम फालिशलाकामात्र योगस्थानोंको एक फालिक्षपक नीचे उतारकर तीन फालिक्षपकके उत्कृष्ट योगस्थानसे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र दो फालिक्षपकके दो रूपकम अधःप्रवृत्तभागहार नीचे उतारने पर पहले निवृत्त कराया गया ग्रन्थस्थान उत्पन्न होता है। पुनः द्विचरम और त्रिचरमसमयवर्ती सवेदीके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पहले निवृत्त कराया गया अर्थस्थान उत्पन्न होता है। ६४१४. अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालि क्षपकको एक एक प्रक्षेप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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