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________________ गा २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १३५ तदो दोहं सुत्ताणं जहाविरोहो तहा' वत्तव्वमिदि। जइवमहाइरिओवएसेण खविदकम्मंसियकालो कम्महिदिमेत्तो सुहुमणिगोदेसु कम्मद्विदिमच्छिदाउओ त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुवक्त्तीदो। भूदबलिआइरियोवएसेण पुण खविदकम्मंसियकालो पलिदोवमस्स असंखे०भागेणणकम्मट्ठिदिमत्तो। एदेसिं दोण्हमुवदेसाणं मज्झे सच्चेणेकेणेव होदव्वं । तत्थ सच्चत्तणेगदरणिण्णओ णत्थि त्ति दोण्हं पि संगहो कायव्वो। $ १३५. संपहि एदस्स सुत्तस्स भावत्थो वुच्चदे।तं जहा--खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असण्णिपंचिंदिएसु देवेसु च उप्पन्जिय तत्थ देवेसु उवसमसम्मत्तं पडिवजमाणकाले उक्कस्सअपुव्वकरणपरिणामेहि गुणसेढिणिजरं काऊण तदो अणियट्टिपरिणामेहि मि असंखेजगुणाए' सेढीए कम्मणिञ्जरं काऊण पढमसम्मत्तं पडिवन्जिय उवसमसम्मत्तद्धाए उक्कस्सगुणसंकमकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि आवूरिय वेदगसम्मत्तं घेत्तूण पुणो अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोजिय वेछावद्विसागरोवमाणि भमिय पुणो दंसणमोहक्खवणद्धाए जहण्णअपुव्वपरिणामेहि गुणसेडिं काऊण उदयावलियबाहिरमिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकुहिय दुसमयूणावलियमेत्तगुणसेडिगोवुच्छाओ गालिय पुणो दुसमयकालपमाणाए एयणिसेयट्ठिदीए सेसाए मिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । कुदो ? कम्मट्ठिदिआदिसमयप्पहुडि पलिदो० असंखे०विरोध न आवे उस रीतिसे कथन करना चाहिये । आचार्य यतिवृषभके उपदेशके अनुसार क्षपितकर्माशका काल कर्मस्थितिप्रमाण है, क्योंकि सूत्रमें सूक्ष्म निगोदियों में कर्मस्थिति काल तक रहा ऐसा निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता और भूतबलि आचार्यके उपदेशके अनुसार क्षपितकाशका काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम कर्मस्थितिप्रमाण है। इन दोनों उपदेशोंमें से एक ही उपदेश सत्य होना चाहिए। किन्तु उनमेंसे एक कौन सत्य है यह निश्चय नहीं है, अतः दोनों ही उपदेशोंका संग्रह करना चाहिये। ६ १३५. अब इस चूर्णिसूत्रका भावार्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-क्षपितकर्माश विधिसे आकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों और देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ देवोंमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके कालमें उत्कृष्ट अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणिनिर्जराको करके फिर अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके द्वारा भी असंख्यातगुणी श्रेणिके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें गुणसंक्रमके उत्कृष्ट कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर फिर वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण किया। फिर अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण किया। फिर दर्शनमोहके क्षपणकालमें जघन्य अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणीको करके उदयावलीके बाहरकी मिथ्यात्वकी अन्तिम फालीको सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण कर तथा दो समय कम आवलि प्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंका गालन कर जब दो समय कालवालो एक निषेकस्थिति शेष रहती है तब मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है, क्योंकि जघन्य प्रदेशसत्कर्मके स्वामित्वके अन्तिम समयमें कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग १. आ०प्रतौ 'जहाविरोहा तहा' इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ 'भागेणूणं कम्महिदिमेत्तो' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'अणियहिपरिणामेहि [म्मि] असखेजगुणाए' डा०प्रतौ 'अणियट्टिपरिणामेहिम्मि असंखेजगुणाए' इति पाठः। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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