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________________ गा० २२ ] मूलपयडिपदेसविहत्तीए पोसणं ३३ S ४४. परिमाणाणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० भुज०अप्पद ० - अवडि० दव्व पमाणेण केत्तिया ? अनंता । एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु सव्वपदा असंखेजा । णवरि मणुसपज्ज० मणुसिणी -सव्वट्टसिद्धि० तिण्णि पदा संखेजा । एवं दव्वं जाव अणाहारिति । $ ४५. खेत्ताणु ० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भुज०अप्पद ० - अवहि० केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु मोह० तिण्णि पदा० लोग० असंखे ० भागे० । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ६ ४६. पोसणाणुगमेण दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण० मोह० भुज ०अप्पद ० -अवट्टि • केवडियं खेत्तं पोसिदं । सव्वलोगो । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण ० रइएस मोह० तिणिपद० लोग० असंखे० भागो छ चोहस० देखणा । पढमपुढवि० खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमपुढवि - सव्वपंचिंदिय तिरिक्ख- सव्वमणुस - सव्वदेव मोह ० तिन्हं पदाणं सगसग पोसणं जाणिदूण वत्तव्वं । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ४४. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए। शेष भार्गणाओं में सब पदवाले जीव असंख्यात हैं । इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि में तीनों विभक्तिवालोंका परिमाण संख्यात है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । $ ४५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्वलोक क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों में जानना चाहिये । शेष मार्गणाओंमें मोहनीयकी तीनों विभक्तिवाले जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । ९ ४६. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्नोंमें जानना चाहिये । आदेश से नारकियों में मोहनीयकी तीनों विभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके कुछ कम छै बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पहली पृथिवी में क्षेत्रकी तरह स्पर्शन जानना चाहिये । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें मोहनीयकी तीनों विभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ — तीनों विभक्तिवालोंका क्षेत्र और स्पर्शन जैसे पहले मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका क्षेत्र और स्पर्शन घटित करके बतलाया है वैसे ही जानना चाहिये । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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