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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
S ४७, कालानुगमेण दुविहो णि० - ओघेण आदे० । ओघेण मोह० तिण्णिपदवि० केवचिरं ० कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्खोघं आदेसेण णेरइएस मोह० भुज० अप्पद० ओघं । अवट्ठि ० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवं सव्वरइय - सव्वपंचिंदियतिरिक्ख- मणुस्स- देव - भवणादि जाव अवराइदं ति । एवं मणुसपज मणुसिणीसु । गवरि अवट्ठि० ज० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । एवं सव्वसिद्धि ० । मणुसअपज० भुज० - अप्प० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवट्टि • रइयभंगो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारित्ि ४८. अंतराणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० |
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ओघेण मोह० तिन्हं
४७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की तीनों विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिये । आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवालोंका काल ओघकी तरह है । अवस्थित विभक्तिवालोंका जघन्य काल ऐक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारको, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमानतकके देवों में जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिये मनुष्य अपर्याप्तकों में भुजगार और अल्पतर विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिवालोंका काल नारकियोंकी तरह जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
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विशेषार्थ - मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेशविभक्तिको करनेवाले नाना जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये इनका काल सदा कहा । सामान्य तिर्यों में भी यह व्यवस्था घट जाती है इसलिये उनमें भी उक्त विभक्तियोंका काल सदा कहा । नारकियों में यद्यपि भुजगार और अल्पतरका काल सदा है पर अवस्थितके कालमें फरक है । बात यह है कि नाना जीव अवस्थितविभक्तिको एक समय तक करके द्वितीयादि समयों में अन्य विभक्तिको भी प्राप्त हो सकते हैं और तब अवस्थित विभक्तिवाला एक भी जीव नहीं रहता है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय है । अत्र यदि नाना जीव निरन्तर अवस्थित प्रदेशविभक्तिको करते हैं तो उपक्रम कालके अनुसार आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक ही कर सकते हैं, इसलिये अवस्थित प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । मूलमें और जितनी मार्गणाऐं बतलाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनी संख्यात हैं, इसलिये इनमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सर्वार्थसिद्धिमें मनुष्य पर्याप्तकोंके समान काल घटित कर लेना चाहिये । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सान्तर मार्गणा है । इस मार्गणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये इसमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पर अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त विधिसे आवली के असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है ।
४८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे
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