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________________ २१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चरिमगुणसंकमभागहारेण वेछावट्ठिअण्णोण्णभत्थरासिणा सादिरेयजहण्णपरित्तासंखेजेण दिवङ्कगुणहाणीए च ओवट्टिदे विगिदिगोवच्छा होदि। ६२०९. पुणो उवरि अण्णेगाए गुणहाणीए झोणाए तत्थतणविगिदिगोवुच्छाभागहारो जो पुव्वं परूविदो सो चेव होदि । णवरि एत्थ जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धं भागहारो होदि । कुदो १ रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणमुवरि अवट्ठिदत्तादो । अधिकारगोवुच्छाए उवरि एगगुणहाणिमेत्तहिदीसु चेहिदासु पगदिगोवच्छाए विगिदिगोवच्छा सरिसा होदि, पढमगुणहाणिदव्वादो विदियादिगुणहाणिदव्वस्स सरिसत्तुवलंभादो। ६२१०. पुणो पढमगुणहाणिं तिण्णि खंडाणि करिय तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तूण उवरिमएगखंडेण सह सेसासेसगुणहाणीसु घादिदासु पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणदुगुणमेत्ता होदि, पढमगणहाणिवे-ति-भागदव्वादो उवरिमति-भागसहिदसेसासेसगणहाणिदव्वस्स किंचूणदुगुणत्तुवलंभादो। एवं गंतूण पढमगणहाणिं जहण्णपरित्तासंखेजमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ हेडिमवेखंडे मोत्तूण उवरिमरूवणुक्कस्ससंखेजमेत्तखंडेहि सह उवरिमासेसगुणहाणीसु घादिदासु पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवच्छा उक्कस्ससंखेजगणा, अवहिददव्वादो हिदिखंडएण पदिददव्वस्स उक्कस्ससंखेजगुणत्तुवल भादो । रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेजमेत्तखंडयाणि पढमगुणहाणिं है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये समयप्रबद्ध अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, साधिक जघन्य परीतासंख्यात और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। ६२०९. फिर आगे एक अन्य गणहानिके गलने पर वहाँकी विकृतिगोपुच्छाका भागहार जो पहले कहा है वही रहता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ जघन्य परीतासंख्यातका आधा भागहार होता है, क्योंकि आगे एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियां अवस्थित हैं। अधिकृत गोपुच्छाके आगे एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंके रहते हुए विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है, क्योंकि प्रथम गुणहानिके द्रव्यसे दूसरी आदि गुणहानियोंका द्रव्य समान पाया जाता है। २१०. फिर प्रथम गुणहानिके तीन खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खंडोंको छोड़कर ऊपरके एक खण्डके साथ बाकीकी सब गुणहानियोंके घातने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा कुछ कम दूनी होती है, क्योंकि प्रथम गुणहानिके दो तीन भागप्रमाण द्रव्यसे उपरिम तीन भाग सहित शेष सब गुणहानियोंका द्रव्य कुछ कम दूना पाया जाता है। इस प्रकार जाकर प्रथम गुणहानिके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण खण्ड करके वहां नीचे के दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण खण्डोंके साथ ऊपरकी अशेष गुणहानियोंका घात होनेपर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा उत्कृष्ट संख्यातगुणी प्राप्त होती है, क्योंकि जो द्रब्य अवस्थित रहता है उससे स्थितिकाण्डक घातके द्वारा पतित हुआ द्रव्य उत्कृष्ट संख्यातगणा पाया जाता है। प्रथम गुणहानिके एक अधिक जघन्य परीतासंख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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