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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २१५ ६ २०६ संपहि उव्वेल्लणकालभतरे एगगुणहाणिमेत्तवेल्लणकाले सेसे पयदगोवुच्छाए उवरि उक्कीरणद्धोवट्टिदचरिमुवेल्लणफालिमेत्तगुणहाणीओ होति । एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण वेछावद्विणाणागुणहाणिसलागाणं सादिरेयण्णोण्णब्भत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणं रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिणा ओदिण्णद्धाणणाणागुणहाणिसलागाणं रूखूणण्णोभत्थरासिणोवट्टिदेण दोहि रूवेहि सादिरेगेहि दिवड्डगुणहाणीए च ओवट्टिदे विगिदिगोवुच्छापमाणं होदि। ६ २०७. पुणो उवरिमण्णोण्णगुणहाणीए झीणाए उव्वेल्लणकालो किंचूणगुणहाणिमेत्तो उव्वरइ, उकीरणद्धोवट्टिदचरिमुव्वेल्लणफालिं विरलिय गुणहाणीए समखंड कादण दिण्णाए तत्थ एगखंडस्स परिहाणिदंसणादो। पुणो विदियगुणहाणीए झीणाए पुव्वुत्तविरलणाए विदियख्वधरिदं गलदि । एवं तिण्णि-चत्तारिआदी जाव जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीओ मोत्तण अवसेससव्वगुणहाणीसु ओदिण्णासु जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयगुणिदुक्कीरणद्धाए औवट्टिदचरिमफालीए गुणहाणीए ओवट्टिदाए तत्थ एगभागमेत्तो उव्वेल्लणकालो सेसो होदि । ६ २०८. संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण किंचूण ६ २०६. अब उद्वेलना कालके भीतर एक गुणहानिप्रमाण उद्वलना कालके शेष रहने पर प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर उत्कीरण कालसे भाजित अन्तिम उद्वलनाफालिप्रमाण गणहानियाँ होती हैं । अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं । वह इस प्रकार हैडेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्धमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहार, दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी साधिक अन्योन्याभ्यस्त राशि, उपरिम अन्तःकोड़ाकोड़ीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि, जितना काल गत हो गया है उसकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाजित और दो रूप अधिक डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण होता है। २०७. पुनः ऊपरकी अन्य एक गुणहानिके गलित होने पर उद्व लना काल कुछ कम एक गुणहानिप्रमाण शेष रहता है, क्योंकि उत्कीरणकालसे भाजित अन्तिम उद्वेलनाफालिका विरलन करके गुणहानिको समान खण्ड करके देनेपर वहाँ एक खण्डकी हानि देखी जाती है। पुनः दूसरी गुणहानिके गलित होने पर पूर्वोक्त विरलनके दूसरे एक विरलन पर स्थापित भागकी हानि होती है । इस प्रकार तीन और चारसे लेकर जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेद प्रमाण गुणहानियोंके सिवा शेष सब गुणहानियोंके गलने पर, जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे उत्कीरण कालको गुणा करो, फिर इसका अन्तिम फालिमें भाग दो, फिर इसका गुणहानिमें भाग देने पर वहाँ जो एक भाग प्राप्त है उतना उद्वेलना काल शेष रहता है। ६२०८. अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका अनुगम करते हैं। वह इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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