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________________ ३७४ जयबवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४२७. संपहि एत्थ पयडि-विगिदिगोउच्छाओ जहण्णजोगेण बद्धसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धे च अपुव्वगुणसेढिगोउच्छं च अस्सिदूण द्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा- पयडिगोउच्छाए उवरिपरमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेण एगचरिमफालिपक्खेवमेत्तं वड्डावेदव्वं । एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो सवेददुचरिमावलियाए विदियसमयम्मि पक्खेउत्तरघोलमाणजहण्णजोगेण वंधिय पुणो चरिमसमयसवेदो होदूण हिदो सरिसो। णवरि पयडिगोउच्छा विगिदिगोउच्छा अपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ च जहण्णाओ चेव, तत्थ वड्डीए अभावादो । संपहि एदेण कमेण चरिमफाली वड्ढावेदव्वा जाव जहण्णजोगादो तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविय पुणो पयडिगोउच्छाए उवरि चरिम-दुचरिमफालिपक्खेवमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण द्विदेण अण्णगो दुचरिमावलियाए विदियसमयम्मि असंखेजगुणजोगेण तदियसमयम्मि पक्खेउत्तरजहण्णजोगेण बंधिय चरिमसमयसवेदो होदूण हिदो सरिसो । एवं वड्ढावेदव्वो जाव दुचरिमावलियाए तदियसमयपबद्धो वि तप्पाओग्गमसंखेजगुणत्तं पत्तो ति । ___ ४२८. संपहि एदेण कमेण समयूणदोआवलियमत्तसव्वसमयपबद्धा ताव वड्ढावेदव्या जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवं संखेजवारं सव्वसमयपबद्धा वड्ढावेदव्या जाव उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । पुणो पयडिगोउच्छमस्सियूणपरमाणुत्तरकमेण अपुन्वगुणसेढिगोउच्छा विगिदिगोवुच्छा च षड्ढावेदव्वाजाव सगुक्कस्सत्तं ६४२७. अब यहाँ पर प्रकृति तथा विकृतिगोपुच्छाओंका, जघन्य योगसे बद्ध एक समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंका और अपूर्वगुणश्रेणिगोपुच्छाका आश्रय कर स्थानका कथन करते हैं । यथा-प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर परमाणु अधिक और दो परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक चरम फालिप्रक्षेपमात्र बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो सवेद भागकी द्विचरमावलिके द्वितीय समयमें प्रक्षेप अधिक घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर पुनः अन्तिम समयवर्ती सवेदी होकर स्थित है । इतनी विशेषता है कि प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणगुणश्रणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणगुणश्रोणिगोपुच्छा जघन्य ही हैं, क्योंकि उनमें वृद्धिका अभाव है। अब इस क्रमसे चरम फालिको जघन्य योगसे तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर पुनः प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर चरम और द्विचरम फालिप्रक्षेप मात्र बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो द्विचरमावलिके द्वितीय समयमें असंख्यातगुणे योगसे तथा तृतीय समयमें प्रक्षेप अधिक जघन्य योगसे बन्ध कर चरम समयवर्ती सवेदी होकर स्थित है। इस प्रकार द्विचरमावलिका तृतीय समयप्रबद्ध भी तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। ४२८. अब इस क्रमसे एक समय कम दो आवलिमात्र सब समयप्रबद्ध तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक बढ़ाने चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक सब समयप्रबद्धोंको संख्यात बार बढ़ाना चाहिए । पुनः प्रकृतिगोपुच्छाका आश्रय कर परमाणु अधिकके क्रमसे अपूर्वकरणगुणोणिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छाको अपने उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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