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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ९२. एवं सामित्तसुत्तेण सूचिदअणियोगद्दाराणं परूवणं कादूण संपहि मिच्छत्तस्स सामित्तपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि मिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्ती कस्स ? ६ ९३. किं णेरइयस्स तिरिक्खस्स मणुसस्स देवस्स वा त्ति एदेण पुच्छा कदा। एवंविहस्स संदेहस्स विणासणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि ___बादरपुढविजीवेसु कम्महिदिमच्छिदाउओ तदो उवट्टिदो तसकाए वेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि अच्छिदाउओ अपच्छिमाणि तेत्तीसं अजघन्य प्रदेशसत्कर्म रहता है इसलिये तो वह अनादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि संज्वलनलोभका जघन्य प्रदेशसत्कर्म क्षपितकाशके अधःप्रवृतकरणके अन्तिम समयमें होता है, अतः इसके अजघन्य प्रदेशसत्कर्मका उक्त तीनोंके साथ सादि विकल्प भी बन जाता है। तथा इन पाँचों प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारका है। इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके स्वामीका उल्लेख पहले किया ही है उसके पहले अनुत्कृष्ट अनादि है और उत्कृष्टके बाद सादि है, अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव है और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता सादि और सान्त है इसलिये इनके चारों पद सादि और अध्रुव हैं। अनन्तानुबन्धीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट कदाचित्क हैं तथा जघन्य क्षपणाके अन्तिम समयमें होता है इसलिये ये तीनों पद सादि और अध्रुव हैं। किन्तु अजधन्य पदमें सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प बन जाते हैं । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होनेके पूर्व तक अजघन्यपद अनादि है और विसंयोजनाके बाद अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होने पर सादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। यह तो ओघसे विचार हुआ। आदेशसे विचार करने पर नरकगति आदि जो मार्गणाएँ अनित्य हैं अर्थात् एक जीवके बदलती रहती हैं उन मार्गणाओंमें उत्कृष्ट आदि चारों पद सादि और अध्रव हैं। किन्तु अचक्षुदर्शन और भव्य मार्गणामें ओघके समान व्यवस्था वन जाती है। हाँ इतनी विशेषता है कि भव्यके ध्रुवपद नहीं होता। यद्यपि अभव्यमार्गणा नित्य है किन्तु उसके आदेश उत्कृष्ट आदि पद कादाचित्क हैं, इसलिये वहाँ चारों पदोंके सादि और अध्रुव ये दो पद ही बनते हैं। ६९२. इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका निर्देश करनेवाले चूर्णिसूत्रके द्वारा सूचित अनुयोगद्वारोंका कथन करके अब मिथ्यात्वके स्वामीको बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? क्या नारकीके होती है, तिर्यश्च के होती है, मनुष्यक होती है अथवा देवके होती है ? ६९३. इस सूत्रके द्वारा प्रश्न किया गया है। इस प्रकारके सन्देहका विनाश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं जो बादर पृथिवीकायिक जीवों में कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा । उसके बाद वहांसे निकला और त्रसकायमें कुछ अधिक दो हजार सागर तक रहा। वहां अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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