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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त २६७ गोवुच्छा च वड्डाव दव्वा । एवं वड्डिदूण द्विदपढमसमयसम्मादिछिणा अण्णेगो चरिमसमयमिच्छादिट्ठी सरिसो । पुणो एत्थ वड्डाविजमाणे तस्समयणवकबंधेणं दुचरिमगुणसेढिगोवुच्छादव्वं च वड्डाव दव्वं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो दुचरिमसमयमिच्छादिट्ठी सरिसो। एवमोदारेदव्व जाव आवलियअपुवकरणो त्ति । संपहि हेहा ओदारेदु ण सक्कदे, उदए गलिदएइंदियसमयपबद्धमत्तगोबुच्छादो वज्झमाणपंचिंदियसमयपबद्धस्स असंखेन्गुणत्तवलंभादो। तेण इमं दव्व चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्व जावप्पणो उकस्सदव्व पत्तं ति । संपहि इमेण अण्णेगो रइओ तप्पाओग्गुक्कस्ससंतकम्मिओ सरिसो। संपहि णेरइयदव्व परमाणुत्तरकमण बड्ढावेदव्व जावप्पणो ओघकस्सदव्व पत्तं ति । एवं खविदकम्म सियसंतमस्सिदण णिरंतरहाणपरूवणा कदा। ___६ २७२. संपहि गुणिदकम्मंसियसंतमस्सिदूण ठाणपरूवणाए कीरमाणाए ऊणदव्वं संधीओ च जाणिय परूवणा कायव्वा । * णवुसयवेदस्स जहणणयं पदेससंतकम्म कस्स ! ६ २७३. सुगमं । तधा चेष अभवसिद्धियपाओग्गण जहणणेण संतकम्मेण तसेसु पागदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्ध ण चत्तारि वारे बढाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके समान एक अन्य जीव है जो अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है। फिर यहाँ पर बढ़ाने पर नवकबन्धके बिना उस समय सम्बन्धी द्रव्यको और द्विचरम गुणश्रोणि गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उपान्त्य समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार अपूर्वकरणमें एक आवलि काल प्राप्त होनेतक उतारना चाहिये । अब नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि यहाँ उदयमें गलित हुए एकेन्द्रियके समयप्रबद्धप्रमाण गोपुच्छाके द्रव्यसे बँधनेवाला पंचेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्ध असंख्यातगुणा है इसलिए इस द्रव्यको चार पुरुषों की अपेक्षा एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चहिये। अब इसके समान एक अन्य नारकी जीव है जो तद्योग्य उत्कृष्ट सत्कर्मवाला है। अब नारकीके द्रव्यको एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपने ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार क्षपितकाशके सत्कर्मकी अपेक्षा निरंतर स्थानोंका कथन किया । ६२७२. अब गुणितकोशके सत्कर्मकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करने पर कम द्रन्य और सधिन्योंको जानकर कथन करना चाहिये। ॐ नसकव दका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। ६ २७३. यह सूत्र सुगम है। * उसी प्रकार अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ वसोंमें आया। वहां संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको बहुत बार प्राप्त कर तथा. चार वार कमायोंको. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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