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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो ३२. कालो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेस० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अणुक० सव्वद्धा। एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस्स-देवभवणादि जाव सहस्सारो त्ति । मणुसपज०-मणुसिणीसु मोह० उ० जह० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवमाणदादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति । मणुसअपज्ज० मोह० उक्क० ओघं । अणुक० जह. खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । तक अपने अपने स्पर्शनको जानकर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिये । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार स्पर्शन जान लेना चाहिये। ६ ३२. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार, सब नारकी, सब तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासी से लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका काल ओघकी तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ—पहले एक जीवकी अपेक्षा कालका निरूपण किया है। अब नाना जीवोंकी अपेक्षा काल बतलाते हैं। यदि ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव एक समय तक होकर द्वितीयादिक समयोंमें नहीं हुए तो उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और यदि उपक्रमण काल तक निरन्तर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव होते रहे तो उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। तथा ओघसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं। ऐसा कोई समय नहीं है जब अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव न हों, क्योंकि सभी संसारी जीव मोहसे बद्ध हैं। मूलमें सब नारकी आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यह ओघव्यवस्था घट जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी संख्यात हैं, अतः यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। सर्वार्थसिद्धिमें भी यही व्यवस्था जाननी चाहिये । आनतादिकमें यद्यपि असंख्यात जीव हैं तो भी यहाँ मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं, अतः यहाँ भी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होता है। मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है और उसका जघन्य काल क्षुद्र भवग्रहण और उत्कृष्ट काल षल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले कुछ जीव मनुष्य अपर्याप्तक हए और एक समय तक उत्कृष्ट विभक्तिके साथ रहकर अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले हो गये। तथा क्षुद्र भवग्रहण काल तक रहकर मरकर अन्य पर्यायमें चले गये तो मनुष्य अपर्याप्त उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और अनुत्कृष्टविभक्तिवालोंका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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