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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ३३. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जह० पदेसवि० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अज० सव्वद्धा । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं । णवरि मणुस्सअपज. अज. अणुक०भंगो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । ३४. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेसवि० अंतरं केव०. कालादो होदि ? जह० एगसमओ, उक्क० अणंतकालं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सव्वमग्गणासु । णवरि मणुस्सअपज० अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. पलिदो० असंखे०भागो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । काल एक समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल क्रमशः आवलिके असंख्यातवें भाग और पत्यके असंख्यातवें भाग होता है, क्योंकि मनुष्य अपर्याप्त मार्गणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। उतने काल तक उसमें अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले रहे फिर एक भी जीव उस मार्गणामें नहीं रहा। आगे अनाहारक मार्गणा तक अपनी अपनी मार्गणाकी विशेषता जानकर पूर्वोक्त विधिसे कालका कथन करना चाहिये । जो सान्तर मार्गणाएँ हों उनमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान उनके अन्तर कालका विचार कर कथन करना चाहिये और निरन्तर मार्गणाओंमें जहाँ जितना काल सम्भव हो इसका विचार करके कालका कथन करना चाहिये। ६३३. जघन्य से प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य विभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब भार्गणाओंमें ले जाना चाहिये । इतना विशेष है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अजघन्य विभक्तिवालोंका काल अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंकी तरह जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहोरी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ ओघसे और आदेशसे अजघन्य विभक्तिवाले जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंकी तरह सदा पाये जाते हैं और जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योंकि क्षपकश्रेणीके निरन्तर आरोहणका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही है। इसी प्रकार निरन्तर सब मार्गणाओंमें यथायोग्य जानना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अजघन्य विभक्तिवालोंका काल अनुत्कृष्ट विभक्ति वालोंकी ही तरह जघन्यसे एक समय कम क्षुद्र भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है उसका कारण पूर्वमें बतलाया है। इसी प्रकार यथायोग्य अन्य सान्तर मार्गणाओंमें जानना चाहिये। ६३४. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति वालोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति वालोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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