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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअं __ २७ ३५. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० ज० अज० उक्कस्साणुक्कस्सभंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं । ३६. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति। F३७. अप्पाबहुगं दुविहं—जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उ कस्सए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० सव्वत्थोवा उक्क०पदेसविहत्तिया जीवा । अणुक्क० पदेसवि० जीवा अणंतगुणा । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण गेरइए सु सव्वत्थोवा मोह० उक्क०पदेसवि० जीवा । अणुक०पदेसवि० जोवा असंखे गुणा । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्सअपज०-देव-भवणादि जाव अवराइद त्ति । मणुसपज-मणुसिणी-सव्वट्ठसिद्धि० सव्वत्थोवा मोह० उक०पदेसवि० जीवा। अणुक०पदेसवि० जीवा संखेजगुणा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवं जहण्णप्पाबहुभं वत्तव्वं । णवरि जहण्णाजहण्णणिद्देसो कायव्यो। - एवं बाबीसअणिओगद्दाराणि समत्ताणि । ६ ३५. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य विभक्तिवालोंका अन्तर उत्कृष्ट विभक्तिवालोंके अन्तरके समान है, और अजघन्य विभक्तिवालोंका अन्तर अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंके अन्तरके समान है। इस प्रकार सत्र मार्गणाओंमें जानना चाहिये। विशेषार्थ-चूँकि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले सदा पाये जाते हैं अतः उनके अन्तरका कोई प्रश्न ही नहीं है। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त मार्गणा चूँकि सान्तर मार्गणा है और उसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग होता है अतः उसमें अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उतना ही कहा है। इसी प्रकार अन्य सान्तर मार्गणाओंमें यथायोग्य जानना चाहिये। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। अर्थात् यदि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला एक भी जीव न हो तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अनन्तकाल तक नहीं होता। इसी तरह जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका भी अन्तर होता है। ३६. भावको अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये। $ ३७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघ से मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब से थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्यअपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजितविमान पर्यन्तके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। इसी प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व कहना चाहिये। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य कहना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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