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________________ ३४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुबिल्लसंतकम्मट्ठाणेण सरिसं, चरिमफालिट्ठाणुप्पायणटुं पुठिवल्लदोफालिखवगस्स घोलमाणजहण्णजोणहाणे अवहिदत्तादो। संपहियदोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरजोगट्टाणं णीदे चरिमफालिहाणं फिट्टिदूण दुचरिमफालिहाणमुप्पअदि, चरिम-दुचरिमफालीणमकमेण पविजुत्तादो। ३८३. संपहि दोफालिक्खवगमत्थेव हविय एगफालिक्खवगे जहण्णजोगहाणादो पक्खेवुत्तरकमेण वड्डमाणे अपुणरुत्ताणि दुचरिमफालिडाणाणि उप्पजति ति कट्ट एगफालिक्खवगोताव वड्ढावेदव्वो जाव दोफालिक्खवगजोगट्ठाणादो तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोगहाणं पत्तो त्ति । संपहि एत्तो उवरि वड्डावे, ण सक्किन्जइ, दोफालिक्खवगजोगट्ठाणम्मि विदियसमए पदणाणुववत्तीदो । तेणेत्थुद्द से किजमाणकञ्जभेदो उच्चदेएगफालिक्खवगो दोफालिक्खवगजोगट्ठाणादो अणंतरहेडिमजोगहाणेण दोफालिक्खवगो वि एगफालिक्खवगजोगहाणेण बंधावेदव्यो। एवं बद्ध पविल्लसंतकम्महाणादो एदं संतकम्महाणं चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीहि अब्भहियं होदि। संपहि इमाओ दुचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ' च डिदद्धाणे रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्ताओ होति ति एगफालिखवगो पुणरवि एत्तियमेतजोगट्ठाणाणि ओदारेदव्यो । एवमोदारिदे एवं संतकम्महाणं चरिमफालिट्ठाणेण सरिसं है, क्योंकि चरम फालिस्थानके उत्पन्न करनेके लिए पहलेका दो फालिक्षपक घोलमान जघन्य योगस्थानमें अवस्थित है। साम्प्रतिक दो फालिक्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकरूप योगस्थानको ले जाने पर चरम फालिस्थान न रहकर उसके स्थानमें द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि चरम और द्विचरम फालियोंका अक्रमसे प्रवेश हुआ है। ६३८३. अब दो फालिक्षपकको यहीं पर स्थापित करके एक फालि क्षपकके जघन्य योगस्थानसे एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाने पर अपुनरुक्त द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होते हैं ऐसा समझकर एक फालिक्षपकको दो फालिक्षपक योगस्थानसे लेकर त असंख्यातगुणे योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब इसके ऊपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि दो फालिक्षपक योगस्थानमें दूसरे समयमें पतन नहीं बन सकता। इसलिये इस स्थान पर किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करते हैं-एक फालिक्षपकको दो फालिक्षपक योगस्थानसे तथा अनन्तर अधस्तन योगस्थानसे दो फालिझपकको भी एक फालिक्षपक योगस्थानरूपसे बन्ध कराना चाहिए । इस प्रकार बन्ध होनेपर पहलेके सत्कर्मस्थान सत्कर्मस्थान आगे गए हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंसे अधिक होता है। अब इन द्विचरम फालियोंको चरमफालिके प्रमाणसे करते हुए आगे गये हुए अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करने पर वहां एक भागप्रमाण होती हैं, इसलिए एक फालि क्षपकको फिर भी इतने मात्र योगस्थान उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर यह सत्कर्मस्थान अन्तिम फालिस्थानके समान हो गया, इसलिए दो फालि झपकको एक एक प्रक्षेप १. आ प्रतौ 'एवं बढे पुधिल्ल संतकम्मट्ठाणादो एवं संतकमाणेण कीरमाणाओ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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