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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडपदेसविहत्तीए सामित्तं पक्खित्ते पुणरुतङ्काणं होदि । पुणो तत्थ दुचरिमफालीए पक्खित्ताए उवरिमफालिमपावेण विच्चाले व अण्णहाणमुप्पजदित्ति भणिदं होदि । ९ ३८१. संपहि दोफालिखवर्ग' पक्खेवुत्तरजोगम्मि चेव हविय एगफालिख वगे पक्खेवु तरजोगेण बंधाविदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगफालिक्खवगो चेव पक्खेषु तर कमेण ताव वढावेदव्यो जाव घोलमाणजहण्णजोगड्ढाणादो तप्पा ओग्गम संखेअगुणं जोगट्ठाणं पत्तो त्ति | संपहि उवरि वडावेढुं ण सकिजदे, एत्तो उवरिमजोगट्ठाणेहि परिणदस्स पुणो अणंतरविदियसमए घोलमाणजहण्णजोगहाणेण परिणमणाणुववत्तीए । संपहि अण्णेगस्स खवगस्स सवेददुचरिमसमए घोल माणजहण्णजोगडाणेण तस्सेव चरिमसमर घोलमाणजहण जोगडाणादो असंखेअगुणजोगेण पुरिसवेदं बंधिय अधियारदुचरिमसमए अवदिस्त पदेससंतकम्महाणं पुव्विल्लुपदेस संतकम्मट्ठाणादो विसेसाहिय, चदिद्वाणमेतदुचरिमफालीहि अहियत्तुवलंभादो । ९ ३८२. पुणो एदाओ अहियदुचरिमफालीओ चरिम- दुचरिमपमाणेण कस्सामो । तं जहा - अधापवत्तभागहार मे तदुचरिमाणं जदि एवं चरिम दुचरिमफालिपमाणं लम्भदि तो चदिद्वाणमेतचरिमफालीणं किं लमामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए जं लद्धं तत्तियमेतं दोफालिक्खदगे हेट्ठा ओदरिदे एदस्स संतकम्मट्ठाणं ३४१ स्थान में मिलाने पर पुनरुक्त स्थान होता है । पुनः वहां पर द्विचरम फालिके प्रक्षिप्त करने पर उपरिम फालिस्थानको नहीं प्राप्तकर बीच में ही अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ९ ३८१. अब दो फालि क्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकरूप योग में ही स्थापितकर एक फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकरूप योगके द्वारा बन्ध कराने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एक फालि क्षपकको ही एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे घोलमान जघन्य योगस्थान से लेकर तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए | अब ऊपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि इससे उपरिम योगस्थानोंरूपसे परिणत हुए जीवके पुनः अनन्तर द्वितीय समय में घोलमान जघन्य योगस्थानरूपसे परिणमन नहीं बन सकता । अब एक अन्य क्षपक जीव जो कि उसीके चरम समय में घोलमान जघन्य योगस्थान से असंख्यतागुणे योगरूप ऐसे सवेदभागके द्विचरम समय में घोलमान जघन्य योगस्थानके द्वारा पुरुषबेदका बन्ध करके अधिकृत द्विचरम समयमें अवस्थित है उसका प्रदेशसत्कर्मस्थान पहले के प्रदेशसत्कर्मस्थान से विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालिरूप से अधिकता उपलब्ध होती है । ६ ३८२. पुनः इन अधिक द्विचरम फालियोंको चरम और द्विचरमके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा - अधःप्रवृत्त भागहारमात्र द्विचरमोंका यदि एक चरम और द्विचरम फालिका प्रमाण प्राप्त होता है तो जितना अध्वान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फळराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण दो फालिक्षपकको नीचे उतारने पर इसका सत्कर्मस्थान पहलेके सत्कर्मस्थानके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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