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________________ १०७ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उदय-परपयडिसंकमाभावेण गलणाभावादो। उक्कड्डणाए दूरमुक्खिविय पक्खित्ताणं सामित्तसमयादो उवरिमद्विदोसु उवसामणा-णिवत्त-णिकाचणाभावमुवगयाणं णत्थि परिसदणं ति भणिदं होदि । एदेसिं तिण्हं करणाणं कालो केत्तिओ ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेजाणि सागरोवमाणि, सत्तिविहीदो अहियकालमवट्ठाणाभारादो । णिवत्त-णिकाचणभावमुवगयपदेसा उक्कस्सेण सव्वपदेसाणं केवडिओ भागो ? जइवसहगणिंदुवएसेण असंखे०भागो, उच्चारणाइरियाणमुवदेसेण असंखेजा भागा। तत्थ पलिदो० असंखे०भागेण इत्थिवेदो पूरिदो त्ति एदेण असंखेजवासाउएसु एगभवपरिमाणं परूविदं ण तसहिदिअभंतरे तत्थच्छिदासेसकालसमासो, तस्स संखेजसागरोवमपमाणत्तादो। तदो सम्मत्तं लब्भिदण मदो पलिदोवमद्विदीओ देवो जादो त्ति किमटुं वुच्चदे ? पुरिसवेदावूरणह। जदि एवं तो दिवड्डपलिदोवमाउटिदिएसु वेदे किण्ण उप्पाइदो ? ण, दिवडपलिदोवमाउ हिदीए चेव एत्थ पलिदोवमाउद्विदि त्ति विवक्खियत्तादो। तं पि कुदो ? जाव सागरोवमं ण पूरेदि न तो उदयको प्राप्त हो सकते हैं और न अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमणको प्राप्त हो सकते हैं, अतः उनकी निर्जरा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि उत्कर्षणके द्वारा उठाकर दूर स्वामित्वके कालसे उपरिम स्थितिमें फेके गये, अतएव उपशामना, निधत्ति और निकाचनाभावको प्राप्त हुए नपुंसकवेदके प्रदेशोंकी निर्जरा नहीं होती। शंका-इन तीनों करणोंका काल कितना है ? समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात सागर प्रमाण है। क्यों कि शक्तिस्थितिसे अधिक काल तक उनका ठहरना नहीं हो सकता। शंका-निधत्ति और निकाचनापनेको प्राप्त हुए प्रदेश उत्कृष्टसे सब प्रदेशोंके कितने भागप्रमाण होते हैं ? समाधान-आचार्य यतिवृषभके उपदेशसे असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं और, उच्चारणाचार्यके उपदेशसे असंख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं। ___ 'वहाँ पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा स्त्रीवेदकी पूर्ति की इस वाक्यके द्वारा असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें एक भवका परिमाण बतलाया है, कुल त्रस कायस्थितिके अन्दर वहाँ रहनेके सब कालका जोड़ नहीं, क्योंकि वह तो संख्यात सागरप्रमाण है। शंका-फिर सम्यक्त्वको प्राप्त करके मरा और पल्यकी स्थितिवाला देव हुआ ऐसा क्यों कहा? समाधान-पुरुषवेदकी पूर्ति करनेके लिये। शंका-यदि ऐसा है तो डेढ़ पल्यकी स्थितिवाले देवोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान—क्योंकि डेढ़ पल्यकी स्थितिकी ही यहां पल्योपमकी स्थिति ऐसी विवक्षा की है। शंका-ऐसी विवक्षा क्यों की ? समाधान-जब तक सागर पूरा नहीं होता तब तककी स्थितिको ‘पल्योपमस्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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