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________________ ३८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वयणेण खवगजीवदव्वगहणादो । समयूणावलियमेत्तउक्कस्सफदएहिंतो जदि वि चरिमफालिदव्व असं०गुणं तो वि चरिमफालिजहण्णदव्वादो चरिमसमयअधापवत्तकरणजहण्णदव्व संखे गुणहीणं ति कट्ट एदं फद्दयस्सादीए कायव्व। पुणो एदं परमाणुत्तरकमेण वढावेदव्व जाव पंचगुणं होदूण कोधसंजलणचरिमफालिदव्वेण सह सरिसं जादं ति । पुणो पुग्विल्लं दव्वं मोतूण इम चरिमफालिदव्य घेत्तूण परमाणुत्तरकमेणवड्डाविय ओदारेदव्व जाव पुरिसवेद-च्छण्णोकसायाणं चरिमफालीओ पडिच्छिदूण द्विदपढमसमओ त्ति । पुणो तत्थ हविय चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्डावेदव्व जाव ओघुक्कस्सं कोधसंजलणस्स संतकम्मति । * जहा कोधरजलणस्स तहा माण-मायासंजलणाणं । ६४४०. जहा कोधसंजलणस्स जहण्णडाणप्पहुडि जाव उक्कस्सपदेससंतकम्महाणं ति सव्वसंतकम्मट्ठाणाणं सामित्तपरूवणा कदा तहा माण-मायासंजलणाणं सव्वसंतकम्महाणाणं सामित्तपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि अधापवत्तचरिमसमए सगसगजहण्णदव्व जहाकोण छग्गुणं सत्तगुणं बड्डाविय अप्पप्पणो जहण्णचरिमफालियाहि सरिसं करिय पुणो पुबिल्लदव्व मोत्तूण सगसगजहण्णचरिमफालिदव्यं घेत्तूण ओदारेदव्य जाव परिवाडीए कोध-माणसंजलपाण चरिमफालीओ पडिच्छिद समाधान-क्योंकि 'तस्स' इस वचनसे क्षपक जीवके द्रव्यका ग्रहण हुआ है। एक समय आवलिमात्र उत्कृष्ट स्पर्धकोंसे यद्यपि चरम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा है तो भी चरम फालिके जघन्य द्रव्यसे चरम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणका जघन्य द्रव्य संख्यातगुणा हीन है ऐसा मानकर स्पर्धकके आदिमें करना चाहिए । पुनः इसे एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच गुणा होकर क्रोध संज्वलनके चरम फालि द्रव्यके साथ समान होने तक बढ़ाना चाहिए। पुनः पहलेके द्रव्यको छोड़कर इस चरम फालिके द्रव्यको ग्रहणकर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे बढ़ाकर पुरुषबेद और छह नोकषायोंकी चरम फालियोंको संक्रमित कर स्थित हुए प्रथम समय तक उतारना चाहिए। पुनः वहां पर स्थापित कर चार पुरुषोंका आश्रय कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा क्रोधसंज्वलनके ओघ उत्कृष्ट सत्कर्मके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। * जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनके सत्कर्मस्थानोंका स्वामित्व कहा है उस प्रकार मान और मायासंज्वलनके सत्कर्मस्थानोंका स्वामित्व कहना चाहिए। ६४४०. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनके जघन्य स्थानोंसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक सत्कर्मस्थानोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा की है उस प्रकार मान संज्वलन और माया संज्वलनके सब सत्कर्मस्थानोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उससे इस प्ररूपणामें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें अपने अपने जघन्य द्रव्यको यथाक्रमसे छहगुना और सातगुना बढ़ाकर अपनी अपनी जघन्य फालियोंके द्वारा सदृश करके पुनः पहलेके द्रव्यको छोड़कर अपने अपने जघन्य फालिके द्रव्यको ग्रहणकर परिपाटी क्रमसे क्रोध और मानसंज्वलनकी चरम फालियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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