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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३८३ पढमसमओ त्ति । पुणो तत्थ हविय चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्व जाव माण-मायासंजलणाणमोघुक्कस्सदव्वति । ॐ लोभसंजलणस्सा जहण्णगं पदेससंतकम्मं कस्स ? - $ ४४१. सुगम। ॐ प्रभवसिद्धियपाओग्गेण जहएणगेण कम्मेण तसकार्य गदो। तम्मि संजमासंजमं संजमं च बहुवारं लद्धाउओ। कसाए ण उवसामिदाउो । तदो कमेण मणुस्सेसुववरणो । दीह संजमद्ध अणुपालेदूण कसायक्खवणाए अब्भुटिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे जहएणगं लोभसंजलपस्स पदेससंतकम्म । ६.४४२. सम्मत्त-संजमासंजम-संजमकंडए हि विणा जं खविदकम्मसियलक्खणेहि त्थोवीभूदं पदेससंतकम्म तमभवसिद्धियपाओग्गं णाम, भव्वाभव्वाणं साहारणत्तादो । तेण संतकम्मेण तसकायं गदो। थावरपाओग्गं जहण्णसंतकम्म कादण तसकायं गदो त्ति भणिदं होदि । किमटुं तसकायिएसु पच्छा हिंडाविदो ? ण, सम्मत्तसंजमासंजम-संजमगुणसेढिणिजराहि तद्दव्वक्खवणडं तत्थुप्पाइयत्तादो। जदि एवं तो संक्रमित होनेके प्रथम समयतक उतारना चाहिए । पुनः वहां पर स्थापितकर चार पुरुषोंका आश्रय कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे मानसंज्वलन और मायासंज्वलनके ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। 8 लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। ६४४१. यह सूत्र सुगम है। * जो अभव्योंके योग्य जघन्य कर्मके साथ उसकायको प्राप्त हुआ। वहां पर संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त किया। किन्तु कषायोंको उपशमित नहीं किया। उसके बाद क्रमसे मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां पर दीर्घ कालतक संयमका पालन कर कषायोंकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। ६४४२. सम्यक्त्वकाण्डक, संयमासंयमकाण्डक और संयमकाण्डकोंके बिना जो क्षपितकर्माशिकलक्षणसे प्रदेशसत्कर्म स्तोक हो जाता है उस प्रदेशसत्कर्मकी अभव्यप्रायोग्य संज्ञा है, क्योंकि यह भव्य और अभव्य दोनोंमें साधारण है । उस सत्कर्मके साथ त्रसकाय को प्राप्त हुआ। स्थावरोंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके त्रसकायको प्राप्त हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-त्रसकायिक जीवोंमें बादमें किसलिए घुमाया ? समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्स्व, संयमासंयम और संयम गुणश्रेणिनिर्जराओंके द्वारा उस द्रव्यका क्षपण करनेके लिए वहां पर उत्पन्न कराया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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