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________________ ३८१ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं * एवमावलियसमयूणमेत्ताणिं फद्दयाणि । ६४३७. उच्छिट्ठावलियाए अंतो समयूणावलियमेत्ताणि चेव फद्दयाणि होति, पढमगुणसेढिगोउच्छाए थिउक्कसंकीण माणागारेण परिणयत्तादो। एदेसिं फहयाणं जहण्णफद्दयमादि कादण जाउकस्सफद्दयं ति ताव जोगहाणेहितो असंखेजगुणसांतरहाणाणं परूवणा पुव्व व कायव्वा, विसेसाभावादो। ___ * चरिमसमयकोधवेदयस्स खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं खंडयं होदि। ६४३८. जहा सवेददुचरिमसमए पुरिसवेदस्स चरिमठिदिखंडयं चरिमसमयअणिल्लेविदं जादं तहा एत्थ ण होदि। किं तु चरिमसमयकोधवेदयस्स खवगस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं चरिमद्विदिखंडयं होदि । कुदो ? साहावियादो। * तस्स जहणणसंतकम्ममादि कादूण जाव ओघुक्कस्सं कोधसंजलणस्त संतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं ।। ६४३९. तस्त चरिमसमयकोषेण विसेसिदजीवस्स जं कोधजहण्णसंतकम्म तमादि कादूण जाच ओघकस्सदव्वं ति एदमेगं फद्दयं ति उत्ते खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण अधापवत्तकरणचरिमसमयावहिदखवगस्स जहण्णदव्वमादि कादणे त्ति घेत्तव्वं, हेटोवरि जहण्णत्ताणुवलंभादो । एदस्स गहणं होदि त्ति कुदो णव्वदे ? तस्से त्ति इस प्रकार एक समय कम आवलिमात्र स्पधक होते हैं। ६४३७. उच्छिष्टावलिके भीतर एक समय कम आवलिमात्र ही स्पर्धक होते हैं, क्योंकि प्रथम गुणश्रेणिगोपुच्छा स्तिवुक संकमण के द्वारा मानरूपसे परिणत हुई है। इन स्पर्धकोंके जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक योगस्थानोंसे असंख्यातगुणे सान्तर स्थानोंकी प्ररुपणा पहलेके समान करनी चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है। चरम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके चरम समयमें अनिर्लेपित काण्डक होता है। ३४८. जिस प्रकार सवेदभागके द्विचरम समयमें पुरुषवेदका चरम स्थितिकाण्डक चम्म समयमें अनिर्लेपित हुआ उस प्रकार यहाँ पर नहीं होता है, किन्तु चरम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके चरम समयमें अनिर्लेपित चरम स्थितिकाण्डक होता है, क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। ॐ उसके जघन्य सत्कर्मसे लेकर क्रोधसंज्वलनके ओघ उत्कृष्ट सत्कर्म तक यह एक स्पर्धक होता है। ६४३९. उसके अर्थात् चरम समय में क्रोधसे युक्त जीवके जो क्रोधका जघन्य सकर्म है उससे लेकर ओघ उत्कृष्ट द्रव्य के प्राप्त होने तक यह एक स्पर्धक है ऐसा कहने पर क्षपित कौशिक लक्षगोंसे आकर अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें स्थित क्षपकके जघन्य द्रव्यसे लेकर ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि नीचे और ऊपर जघन्यपना उपलब्ध नहीं होता है। शंका-इसका ग्रहण होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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