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________________ ३८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पाहणियाभावादो। एदस्स फद्दयस्स जहण्णट्ठाणमादि कादूण जाव एदस्सेव फद्दयस्स उक्कस्सहाणं ति ताव असंखेजाणं सांतरहाणाणं परूवणा कायव्वा । अणंताणि हाणाणि एत्थ किंण होति ?ण,पगदिगोउच्छाए अभावेण परमाणुत्तरकमेण पदेसउड्डीए अभावादो।ण च अणियट्टिगुणसेढीए उड्डी अस्थि, खविदगुणिदकम्मंसियअणियट्टीसु परिणा मेदाभावादो। तम्हा एत्थ आवलियमेत्तजहण्णजोगेण बद्धसमयपबद्धे घेत्तूण जोगहाणाणि चरिमादिफालीओ च अस्सिदण जोगहाणेहिंतो असंखेजगुणमेत्तपदेससंतकम्महाणाणि उप्पादेदव्वाणि । * दुचरिमसमए अण्णं फद्दयं । ___४३६. पुव्विल्लउक्कस्सफद्दयादो एदस्स जहण्णफद्दयस्स अणंत णि हाणाणि अंतरिय अवडिदत्तादो । केत्तियमेत्तमेत्थ अंतरं? असंखेजसमयपबद्धमेतं । अणियट्टिचरिमगुणसेढिसीसयादो पुव्विल्लादो एत्थतणअणियट्टिगुणसेढिसीसयं सरिसं ति अवणिय समयाहियावलियमेत्तजहण्णसमयपबद्धभहियअणियट्टिदुचरिमगुणसेढिगोउच्छादो आवलियमेत्तकस्ससमयपबद्धसु सोहिदेसु सुद्धसेसम्मि असंखेजसमयपबद्धाणमुवलंभादो । पुणो एवं जहण्ण हाणमादि कादूण असंखेजजोगडाणगेत्ताणं पदेससंतकम्महाणाणं परवणा कायव्वा । इस स्पर्धकके जघन्य स्थानसे लेकर इसी स्पर्धकके उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक असंख्यात सान्तर स्थानोंका कथन करना चाहिए। शंका-यहां पर अनन्त स्थान क्यों नहीं होते ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छाका अभाव होनेके कारण एक एक परमाणु अधिक क्रमसे यहाँ पर प्रदेशवृद्धिका अभाव है, इसलिए यहां पर आवलिमात्र जघन्य योगसे बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंको ग्रहण कर योगस्थानों और अन्तिम फालिका आश्रय कर योगस्थानोंसे असंख्यातगुणे प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न करने चाहिए । ॐ द्विचरम समयमें अन्य स्पर्धक होता है। $ ४३६. क्योंकि पहलेके उत्कृष्ट स्पर्धकसे इस जघन्य स्पर्धकके अनन्त स्थानोंका अन्तर देकर अवस्थित है। शंका-यहां पर कितनामात्र अन्तर है। समाधान-असंख्यात समयमात्र अन्तर है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणके पहलेके गुणश्रेणिशीर्षकसे यहां का अनिवृत्ति करण गुणश्रोणिशीर्षक समान है, इसलिए इसे अलग करके एक समय अधिक आवलिमात्र जघन्य समयप्रबद्ध अधिक अनिवृत्तिकरण द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छामेंसे आवलिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंके घटाने पर जो शेष रहे उसमें असंख्यात समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं। पुनः इस जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात योगस्थानमात्र प्रदेशसत्कर्मस्थानोंका कथन करना चाहिए। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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