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________________ गा० २२] उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं समयूण दो आवलियम तो जोगडाणाणमेत्थ गुणयारो किं ण होदि १ण, उच्छिहावलियाए तो समयूणावलियमेत्त गुणसेढिगो उच्छासु असंखेअसमयपबद्धमेतासु संतीसु णवकबंधस्स पाहण्णियाभावादो । * कोधसंजलणस्स उदए बोच्छिणे जा पढमावलिया तत्थ गुण से ढी पविछल्लिया । ३७९ $ ४३४. को संजणस्स उदयवोच्छिण्णे संते जा पढमावलिया तत्थ गुणसेढी किम पविट्ठा ? ण, सगोदयकालादो आवलियन्भहियपढमट्ठिदीए करणादो । किमहमेव कीरदे ? साहावियादो । * तिस्से आवलियाए चरिमसमए एगं फद्दयं । $ ४३५. कुदो ? पुव्विल्लसमयूणावलियमेत्त उकस्ससमयपबद्धेहिंतो एत्थ असंखेज्जगुणसमयपबद्धाणं उवलंभादो | पगदि - विगिदि अपुव्वगुण सेढिगोउच्छाओ एत्थ अणियष्टिगुणसेडिगो उच्छा एक्कल्लिया चैव विदियहि दिपदेस संतकम्मं ओकडिदूण अंतर गुणसेढिकरणादो । तेण तत्तो असंखेज्जगुणं ण जुञ्जदित्ति ण पञ्चवट्ठेयं, पद - विगिदि - अपुव्वगुणसे ढिगोउच्छाहिंतो अणियट्टिगुणसेढीए असंखेखगुणभावेण तासिं शंका- यहां पर योगस्थानोंका गुणकार एक समय कम दो आवलिप्रमाण क्यों नहीं है ? समाधान- नहीं, क्योंकि उच्छिष्टावलिके भीतर एक समय कम आवलिमात्र गुणश्र ेणि गोपुच्छाओंके असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होते हुए नवकबन्धकी प्रधानता नहीं है । * क्रोधसंज्वलन के उदयके व्युच्छिन्न होने पर जो प्रथम आवलि है उसमें गुणश्र ेणि प्रविष्ट होती है । $ ४३४. शंका — क्रोधसंज्वलनके उदयके व्युच्छिन्न होने पर जो प्रथम आवलि है उसमें किसलिए प्रविष्ट हुई है ? समाधान नहीं, अपने उदयकालसे प्रथम स्थितिको एक आवलिप्रमाण अधिक किया है । शंका- ऐसा किसलिए करते हैं ? समाधान —— स्वाभाविकरूपसे ऐसा करते हैं ? * उस आवलिके चरम समय में एक स्पर्धक होता है । ९ ४३५. क्योंकि पहले के एक समय कम आवलिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंसे यहां पर असंख्यातगुणे समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं । शंका- यहां पर प्रकृति, विकृति और अपूर्वकरण गुणश्रेणि गोपुच्छाऐं नहीं हैं, एक मात्र अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणिगोपुच्छा ही है, क्योंकि द्वितीय स्थितिके प्रदेशसत्कर्मका अपकर्षण करके अन्तर में गुणश्रेणि की गई है, इसलिए यह उनसे असंख्यातगुणी नहीं बनती ? समाधान —— ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रकृति, विकृति और अपूर्वकरण गुणश्र णि गोपुच्छाओंसे अनिवृत्तिकरण गुणश्र ेणि असंख्यातगुणी होनेसे यहां उनकी प्रधानता नहीं है । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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