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________________ ३७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे (पदेसविहत्ती ५ ६४३२. कोधवेदगणिद्द सो किमहूं कदो ? परोदएण बद्धणयगसमयपबद्धो चिराणसंतकम्मेण सह विणस्सदि त्ति जाणावणटं । चरिमसमयणिद्द सो किं फलो ? अहियारसमए दुचरिमादिसमयपबद्धाणं अभावपदुप्पायणफलो। जहण्णजोगणिद्द सो किं फलो ? जहण्णदव्वगहणट्ठ । दुचरिमादिफालीणं गालणफलो चरिमसमयअगिल्लेविदणि सो। सेसं सुगमं। ___जहा पुरिसवेदस्स दोभावलियाहि दुसमयूणाहि जोगहाणाणि पदुप्पण्णाणि एवदियाणि संतकम्महापाणि सांतराणि । एवमावलियाए समऊणाए जोगडाणाणि पदुप्पण्णाणि एत्तियोणि कोधसंजलणस्स सांतराणि संतकम्माणाणि । ६४३३. दोहि आवलियाहि दुसमयूणाहि जोगट्ठाणाणि पदुप्पण्णाणि संताणि जावदियाणि होति एवदियाणि पुरिसवेदसांतराणि संतकम्महाणाणि होति । जहा एदेसिं हाणाणं पर्व परूवणा कदा एवं कोधसंजलणस्स हाणाणं पि परूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि समयूणाए आवलियाए जोगहाणेसु पदुप्पण्णेसु जं पमाणमेत्तियाणि कोधसंजलणस्स सांतराणि पदेससंतकम्महाणाणि। ६ ४३२. शंका-सूत्र में 'क्रोधवेदक' पदका निर्देश किसलिए किया है ? समाधान-परोदयसे बाँधा गया नवक समयप्रबद्ध प्राचीन सत्कर्मके साथ विनाशको प्राप्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए किया है। शंका-सूत्र'चरम समय' पदके निर्देशका क्या फल है। समाधान-अधिकृत समयमें द्विचरम आदि समयप्रबद्धोंके अभावका कथन करना इसका फल है। शंका-सूत्र में 'जघन्य योग' पदका निर्देश किसलिए किया है ? समाधान-जघन्य द्रव्यका ग्रहण करनेके लिए इसका निर्देश किया है। द्विचरम आदि फालियोंका गालन हो जाता है यह दिखलानेके लिए सूत्रमें 'चरम समय अनिर्लेपित' पदका निर्देश किया है । शेष कथन सुगम है। * जिस प्रकार पुरुषवेदके दो समय कम दो आवलियोंसे योगरथान उत्पन्न होकर उतने ही सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं उसी प्रकार एक समय कम आवलिके द्वारा योगस्थान उत्पन्न होकर उतने ही क्रोधसंज्वलनके सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं । ६४३३. दो समय कम दो आवलियोंके द्वारा योगस्थान उत्पन्न होकर जितने होते हैं उतने ही पुरुषवेदके सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं। जिस प्रकार इनके स्थानोंकी पहले प्ररूपणा की है उसी प्रकार क्रोधसंज्वलनके स्थानों की भी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उक्त प्ररूपणासे इस प्ररूपणामें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि एक समय कम आवलिके आलम्बनसे योगस्थानोंके उत्पन्न होने पर जो प्रमाण हो उतने क्रोधसंज्वलनके सान्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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