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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २४७ ६ २४५. पुणो तत्थ दृविय वड्डाविजमाणे दोहितो अधापवत्तचरिमसमयम्मि गददव्वं त्थिवुक्कसंकमण गदव गोवुच्छाओ च वड्डाव दव्याओ। एवं वड्डिद्ण हिदेण अण्णेगो अधापवत्तदुचरिमसमयद्विदो सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव अधापवत्तपढमसमयमिच्छादिहि त्ति । पुणो तत्थ हविय वड्डाविजमाणे दोहितो अधापवत्तसंकमेण गददव्वमेत्तं त्थिउक्कगोवुच्छाओ' पुणो सम्मादिहिचरिमसमयम्मि उप्पादाणुच्छेदणएण णिअिण्णमिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तिहि गोवुच्छाओ च वड्ढाव दव्वाओ । एवं वड्डिदण द्विदेण अण्णेगो चरिमसमयसम्मादिही सरिसो। पुणो एत्थ दोण्हं मिच्छत्तादो आगददग्वेणणसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवेगोवुच्छाओ मिच्छत्तगोवुच्छविसेसो च वड्ढावेदव्यो। एवं वड्डिदेण अण्णेगो अणंतरहेहिमसमयट्टिदो सरिसो । एवं वड्डाविय सरिसं करिय ओदारेदव्व जाव पढमछावहिचरिमसमयसम्मामिच्छादिहि त्ति। २४६. संपहि एत्थ वे गोवुच्छाओ एगगोवृच्छविसेसो च वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डिदेण दुचरिमसमयसम्मामिच्छादिही सरिसो। एत्थ मिच्छत्तादो सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु संकेतदव्व Yणतं किण्ण परूविदं १ ण, सम्मामिच्छादिहिम्मि दसणतियस्स संकमाभावादो। एव' वड्डाविय ओदारेदव्व जाव पढमछावट्ठीए ६२४५. फिर वहाँ ठहरा कर द्रव्यके बढ़ाने पर दोनोंमेंसे अधःप्रवृत्तके अन्तिम समयमें पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई दो गोपुच्छाओंको बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो अधःप्रवृत्तसंक्रमणके उपान्त्य समयमें स्थित है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तके प्रथम समयवर्ती मिथ्याष्टिके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहाँ ठहराकर द्रव्यके बढ़ानेपर दोनोंमेंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको और स्तिवुक संक्रमणसंबंधी दो गोपुच्छाओंको तथा सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें उत्पादानुच्छेदनयकी अपेक्षा निर्जराको प्राप्त हुई मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिए । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि है। फिर यहां मिथ्यात्वमेंसे इन दोनों प्रकृतियोंके लिए आये हुए द्रव्यसे कम सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दो गोपुच्छाओंको तथा मिथ्यात्वके गोपुच्छविशेषको बढ़ाना चाहिए । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अनन्तर नीचेके समयमें स्थित है। इस प्रकार बढ़ाकर और समान कर प्रथम छयासठ सागरमें सम्यग्मिथ्या दृष्टिके अन्तिम समयतक उतारते जाना चाहिए। ६२४६. अब यहांपर दो गोपुच्छाओंको और एक गोपुच्छा विशेषको बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उपान्त्य समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि है। शंका-यहां मिथ्यात्वमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त हुए द्रव्यसे कम क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी तीन १. ता०प्रतौ 'गददवमेत्त वेति(त्थि)वुक्कगोवुच्छामो' इति पाठः ।............. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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