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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३२५ रूवूणअधापवत्तभागहारेण जोगहाणद्वाणे खंडिदे एगखंडमेत्तद्वाणाणं तत्थुवलंभादो । एत्थ संदिट्ठी १२८|२| अहियद्वाणपमाणमेदं १३ । $ ३६५. संपहि अण्णेगे खवगे सब दतिच रिमसमयम्मि तप्पा ओग्गजहण्णजोगेण दुचरिमसमए चरिमसमए च उक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए चेट्ठिदे छफालओ लब्भंति । संपहि एदाओ छष्फालीओ पुव्विल्लुक्कस्स तिष्णिफालीहिंतो विसेसाहियाओ, उक्कस्सजोगहाणपक्खेव भागहारमेतदुचरिम-तिचरिमफालीणं तिचरिमसमय सर्व देण तप्पा ओग्गजहण्णजोगेण बद्धचरिमफालीए च अहियत्तवलंभादो । संपहि एदस्स अंतरस्स हायणकमो बुच्चदे । तं जहा - अधापवत्तमेत्तदचरिमफालीणं जदि एगं चरिम- दचरिमफालिपमाणं लम्भदि तो उक्कस्सजोगहाणद्धाणमेत्तदुचरिमाणं केत्तियाओ चरिम- दुचरिमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए अधापवतेण उकस्सजोगद्वाणद्धाणे खंडिदे तत्थ एयखंडसादिरेयदोरूवगुणिदे जत्तियाणि रुवाणि तत्तियम ताओ चरिम - दुचरिमफालीओ लब्भंति । कुदो ? सादिरेयद्गुणतं तिचरिमफालिफलेण सह जोगादो लद्धमेदं पुध ट्ठविय पुणो तप्पाओग्गजहण्णजोगपक्खेवभागहारमधापवत्तेण खंडेदूण तत्थतणएगखंडे रूवूणअधापवत्तेण गुणिदे जं लद्धं तं पुव्विल्ललम्मि पक्खिविय तत्थ जत्तियम त्ताणि रुवाणि तत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणि एक खण्डमात्र स्थान वहाँ उपलब्ध होते हैं । यहाँ पर संदृष्टि-- १२८, २ । अधिक अध्वानका प्रमाण यह है-- । ६३६५. अब अन्य एक क्षपकके सवेद भागके त्रिचरम समय में तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे तथा द्विचरम समय और चरम समय में उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समय में स्थित होने पर छह फालियाँ होती हैं । अब ये छह फालियाँ पहले की उत्कृष्ट तीन फालियोंसे विशेष अधिक हैं, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थान प्रक्षेपभागहारमात्र द्विचरम और त्रिचरम फालियाँ तथा त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे बाँधी गई चरम फालि अधिक पाई जाती हैं। अब इस अन्तरके कम होनेके क्रमका कथन करते हैं । यथा - अधः प्रवृत्तमात्र द्विचरम फालियों में यदि एक चरम और द्विचरम फालिका प्रमाण प्राप्त होता है तो उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानमात्र द्विचरमोंकी कितनी चरम और द्विचरम फालियाँ प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर अधःप्रवृत्त के द्वारा उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानके भाजित करने पर वहाँ प्राप्त एक भागको साधिक दो रूपों से गुणित करने पर जितने रूप आते हैं उतनी चरम और द्विचरम फालियाँ. प्राप्त होती हैं, क्योंकि त्रिचरम फालिरूप फलके साथ योगसे लब्ध हुई इस साधिक द्विगुणी संख्याको पृथक् स्थापित करके पुनः तत्प्रायोग्य जघन्य योगकें प्रक्षेपभागहारको अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित कर वहाँ प्राप्त हुए एक भागको एक कम अधःप्रवृत्त से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उसे पहले के लब्धमें मिलाकर वहाँ जितने रूप हों, उत्कृष्ट योगस्थानसे उतने योगस्थान जाने तक द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको उतारना चाहिए। इस प्रकार उतारने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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