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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ १६७. एवं एदेण कमेण खविदकम्मंसियजहण्णदव्वस्सुवरि वढावेदव्वं जाव तप्पाओग्गएगगोवुच्छविसेसो पयदगोवुच्छाए एगसमयमोकड्डिदूण विणासिददव्वं विज्झादभागहारेण परपयडिसरूवेण गददव्वं वडिदं ति । एवं वविदण द्विदो जहण्णसामित्त विहाणेग आगंतूण समयूणवेछावहिं भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगदुसमयकालपमाणं धरेदूण द्विदो च सरिसो। ___ १६८. संपहि पुविल्लखवगं मोत्तूण इमं समयूणवेछावहिं भमिय खवेदूणच्छिदखवगं घेत्तूण एदस्स दव्वं परमाणुत्तरदुपरमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि एगो तप्पाओग्गगोवुच्छविसेसो पयदगोवुछाए एगवारमोकड्डिय विणासिददव्वं तत्तो एगसमएण परपयडीसु संकामिददव्वं च वडिदं ति । एवं वद्भिदणच्छिदो अण्णेगेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण दुसमयूणवेछावहिं भमिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदूणच्छि देण सरिसो। ६ १६९. तं मोत्तूण दुसमयूणवेछावडीओ' हिंडिदूण हिदखवगदव्यं घेत्तुण पुणो एदं परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव एगो गोवुच्छविसेसो पयदगोवुच्छाए एगवारमोकड्डिदूण विणासिजमाणदव्वं तत्तो विज्झादसंकमेण गददव्वं १७ आ जाता है। ६ १६७. इस प्रकार इस क्रमसे क्षपितकाशके जघन्य द्रव्यके ऊपर तब तक वृद्धि करनी चाहिये जब तक उसके योग्य एक गोपुच्छ विशेष, प्रकृत गोपुच्छमें एक समयमें अपकर्षण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और विध्यातभागहारके द्वारा परप्रकृति रूपसे गये हुए द्रव्यकी वृद्धि हो । इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हुआ जीव और जघन्य स्वामित्वके विधानके अनुसार आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाला जीव ये दोनों समान हैं। ६१६८. अब पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर इस एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षपण करके स्थित क्षपकको लेकर और इसके जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु, दो परमाणुके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा उसके योग्य एक गोपुच्छविशेष, प्रकृत गोपुच्छामें एकबार अपकषर्ण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और उस गोपुच्छामें से एक समयमें परप्रकृतियोंमें सक्रान्त हुआ द्रव्य बढ़ाओ । इस प्रकार वृद्धिको करके स्थित हुआ जीव क्षपितकाशके लक्षणके साथ आकर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाले अन्य जीवके समान है। ६१६९. पुनः उसको छोड़कर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके स्थित क्षपकके द्रब्यको लो। फिर इसके एक परमाणु, दो परमाणु के क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक एक गोपुच्छविशेष, प्रकृतिगोपच्छमें एकबार अपकर्षण करके विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्य और उसमेंसे विध्यातभागहारके द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यकी १. भा०प्रतौ 'दुसमयवेछावडिओ इति पाठः । For Private & Personal Use Only Sain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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