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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १७१ ६ १६६. संपहि एदिस्से वडीए छेदभागहारपरू वणं कस्सामो। तं जहाजहण्णपरित्ताणंतं विरलेदूण समखंडं कादूण एवं पडि जहण्णदव्वे दिण्णे एकेक्कस्स रूवस्स जहण्णपरित्ताणतेणोवट्टिदजहण्णदव्वं पावदि । पुणो एदिस्से विरलाणाए हेटा वड्डिरूओवट्टिदएगरूवधरिदं विरलिय समखंडं कादूण एगरूवधरिदे चेव दिण्णे रूवं पडि एगेगपदेसो पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदे उवरिमविरलणाए एगेगरूवधरिदस्सुवरि हविदे संपहि पड्दिददव्वं होदि । हेहिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरू वपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए जहण्णपरित्ताणंतपमाणाए केवडियरूवपरिहाणिं पेच्छामो ति पमाणेण फलगुणिदच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । पुणो एदम्मि जहण्णपरित्ताणंतविरलणाए एगरूवादो कदसरिसछेदादो सोहिदे सुद्धसेसमेगरूवस्स अर्णता भागा उक्कस्समसंखेजासंखेजं च भागहारो होदि । संपहि एदस्स एगरूवस्स जाव अणंता भागा झिजंति ताव छेदभागहारो चेव । पुणो तेसु सव्वेसु झीणेसु समभागहारो। $ १६६. अब इस वृद्धिके छेद भागहारका कथन करते हैं, जो इस प्रकार है-जघन्यपरितानन्तका विरलन करके उसके प्रत्येक एक-एक रूप पर जघन्य द्रव्यके बराबर-बराबर खण्ड करके देने पर एक-एक रूप पर जघन्य परीतानन्तसे भाजित जघन्य द्रव्य आता है। फिर इस विरलनके नीचे वृद्धिरूपके द्वारा भाजित एक रूप पर स्थापित द्रव्य करके उसके उपर एक रूप पर स्थापित द्रव्यके ही समान खण्ड करके देने पर प्रत्येक एक पर एक-एक प्रदेश प्राप्त होता है। फिर यहाँ एक रूप पर स्थापित एक प्रदेशको ऊपरकी विरलन राशिके एक एक रूपपर स्थापित द्रव्यके ऊपर रखने पर इस समय बढ़े हुए द्रव्यका परिमाण होता है । रूप अधिक नीचेके विरलनके जाने पर यदि एक रूपकी हानि प्राप्त होती है तो ऊपरके जघन्य परीतानन्तप्रमाण विरलनमें कितने रूपोंकी हानि होगी, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग देने पर एक रूपका अनन्तवां भाग आता है। फिर इस अनन्तवें भागको जघन्य परीतानन्तप्रमाण विरलनराशिके एक विरलनमेंसे समान छेद करके उसमेंसे घटाने पर एक रूपका अनन्त बहुभाग और उत्कृष्ट असंख्यतासंख्यात भागहार प्राप्त होता है। अब इस रूपके अनन्त बहुभाग जब तक क्षयको प्राप्त होते हैं तब तक तो छेदभागहार ही रहता है। किन्तु उन सबके क्षीण होने पर समभागहार होता है। उदाहरण-जघन्य द्रव्य ६४ ज. परीतानन्त ४ वृद्धिरूप १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ एक अधिक नीचेके विरलन जाने पर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनके प्रति कितनी हानि प्राप्त होगी । इस प्रकार त्रैराशिक करने पर की हानि प्राप्त हुई। अब इसे एकमेंसे घटा देने पर 3 रहे । पुनः इसे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातमें जोड़ देने पर ६९ आये । यहाँ यही भागहार है, क्योंकि इसका भाग जघन्य द्रव्यमें देने पर इच्छित द्रव्य Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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