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________________ १७० जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहती ५ च काढूण तदो असणिपंचिदिएसु उववज्जिय तत्थ देवाउअं बंधिदूण देवेसुववज्जिय छ पजत्तीओ समाणिय पुणो सम्मत्तं घेत्तूण वेडावहीओ भमिय तदो दंसणमोहणीयक्खवणाए अन्भुट्टिय मिच्छत्तस्स एट्ठिदिदुसमयकालप्रमाणे द्विदिसंत कम्म अच्छिदे जहण्णदव्वं होदि । एदमेगं ठाणं । पुणो अण्णम्मि जीवे पुव्वुत्तखविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण ओकडकड्डणमस्सिय एगपरमाणुणा अब्भहियमिच्छत्तजहण्णदव्वं धरेण तत्वावहिदे विदियद्वाणं । एसा अनंतभागवड्डी, जहण्णदव्वे तेणेव खंडिदे तत्थे खंडस वत्तादो । पुणो दोसु पदेसेसु वड्ढिदेसु सा चैव वड्डी, जहण्णदव्वदुभागेण जहण्णदव्वे भागे हिदे तत्थेगभागस्स वडिदत्तादो | एवं तिष्णि चत्तारि-आदि काढूण जाव संखेज- असंखेज- अणतपदेसेसु वहिदेसु विसा चैव वड्डी । पुणो जहण्णपरित्ताणंतेण जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थेगखंडे जहण्णदव्वस्सुवरि वडिदे अणंतभागवड्डी परिसमप्पदि, जहण्णपरित्ताणंतादो हेट्ठिमासेससंखाए आणंतियाभावादो । $ १६५. पुणो दस्सुवरि एगपदेसे वडिदे असंखे ० भागवड्डी होदि । अवत्तव्यवड्डी किण्ण जायदे ? ण, अणंतासंखेजसंखाणमंतरे अण्णसंखाभावादो' । ण परियम्मेण वियहिचारी, तत्थ कलासंखाए विवक्खाभावादो । होकर छ पर्याप्तियोंको पूरा करके फिर सम्यक्त्वको ग्रहण करके दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करे। फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर मिथ्यात्वके एक निषेककी दो समयप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर जघन्य द्रव्य होता है । यह एक स्थान है । कोई दूसरा जीव क्षतिकर्माशके पूर्वोक्त लक्षणके साथ आकर अपकर्षण- उत्कर्षणके आश्रयसे एक परमाणु अधिक मिध्यात्वके उक्त जघन्य द्रव्यको करके जब वहीं पाया जाता है तो दूसरा स्थान होता है । यह अनन्तभागवृद्धि है; क्योंकि यहाँ पर जघन्य द्रव्यमें जघन्य द्रव्यसे ही भाग देने पर लब्ध एक भागकी वृद्धि हुई है । पुनः जघन्यमें दो प्रदेशों के बढ़ने पर भी वही वृद्धि होती है; क्योंकि जघन्य द्रव्यके आधेका जघन्य द्रव्यमें भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आया उसकी यहाँ वृद्धि पाई जाती है । इस प्रकार तीन, चार आदि प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंके बढ़ने पर अनन्तभागवृद्धि ही होती है । पुन: जघन्य द्रव्य में जघन्य परीतानन्तसे भाग देकर लब्ध एक भागको जघन्य द्रव्य में मिला देने पर अनन्तभागवृद्धि समाप्त हो जाती है, क्योंकि जघन्य परितानन्त से नीचेकी सब संख्याएँ अनन्त नहीं हैं । १६५ फिर अन्तिम अनन्तभागवृद्धियुक्त जघन्य द्रव्यमें एक प्रदेशके बढ़ाने पर असंख्यात भागवृद्धि होती है । शंका- अवक्तव्यवृद्धि क्यों नहीं होती ? समाधान नहीं, क्योंकि अनन्त और असंख्यात संख्या के बीच में अन्य संख्या नहीं है । इस कथनका परिकर्म नामक ग्रन्थमें किए गए कथनके साथ व्यभिचार भी नहीं आता; क्योंकि उसमें कलाओंकी संख्याको विवक्षा नहीं है । १. प्रा० प्रतौ० ' - मिच्छन्त धरेदूण' इति पाठः । २ श्र०प्रती ' वडिदेसु एसा चेव' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'अण्णसंभा (भा) वादो' । श्र०प्रतौ 'अण्णासंखाभावादो' इति पाठः । ४. ताप्रतौ कालसंखाए इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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