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________________ गा०२२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं आवलियमेत्तफद्दए अस्सिदूण हिदट्टाणपरूवणाए एकम्मि परूवणाणुववत्तीदो। जं जं जम्मि जम्मि फद्दयं परूविदं तत्थ तत्थ तहाणपरूवणा सुत्तेव किण्ण कदा १ ण, सवित्थराए फद्दयं पडि ढाणपरूवणाए कीरमाणाए गंथबहुत्तं होदि त्ति सयलफद्दए समुप्पण्णावगमाणं सिस्साणमेगफद्दयस्स हाणपरूवणं सवित्थरं काऊण अण्णासिं फद्दयहाणपरूवणाणमत्थेवंतब्भावपदुप्पायणटुं पच्छा तप्परूवणाकरणादो। ण च फद्दयं पडि पढमं चेव चउव्विहा द्वाणपरूवणा पण्णवणजोग्गा, अणवगयफद्दयंतरस्स तजाणावणे उवायाभावादो। ६ १६४. खविदकम्मंसियस्स कालपरिहाणिट्ठाणपरूवणा गुणिदकम्मंसियस्स कालपरिहाणिट्ठाणपरूवणा खविदकम्मंसियस्स संतकम्मट्ठाणपरूवणा गुणिदकम्मंसियस्स संतकम्मट्ठाणपरूवणा चेदि चउव्विहा हाणवरूवणा । तत्थ ताव वेछावद्विसागरोवमसमए एगसेढिआगारेण ढइदण' खविदकम्मंसियकालपरिहाणिहाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्महिदिं सुहुमणिगोदेसु अच्छिय पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तसंजमासंजमकंडयाणि तत्तो विसेसाहियसम्मत्तकंडयाणि अणंताणुबंधिविसंजोयणकंडयाणि च पुणो किंचूणअट्ठसंजमकंडयाणि चत्तारिवारं कसायउवसामणं समाधान-नहीं, क्योंकि आवलीप्रमाण स्पर्धकों पर अवलम्बित स्थानोंका कथन एक स्पर्धकके कथनके समय नहीं किया जा सकता। शंका—जो जो स्पर्धक जिस-जिस स्थानमें कहा है वहाँ-वहाँ उस स्थानका कथन सूत्रमें ही क्यों नहीं किया ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि प्रत्येक स्पर्धकके प्रति स्थानोंका विस्तारपूर्वक कथन करने पर ग्रन्थ बड़ा हो जायगा। इसलिये सव स्पर्धकोंका जिन्हें ज्ञान हो गया है उन शिष्योंको एक स्पर्धकके स्थानोंका कथन विस्तारसे करके अन्य स्थानोंके कथनका इसीमें अन्तर्भाव कराने के लिये पीछेसे उनका कथन किया है। दूसरे प्रत्येक स्पर्धकके प्रति पहले ही स्थानोंका चार प्रकारका कथन बतलानेके योग्य नहीं है। क्योंकि जिसने स्पर्धकोंका अन्तर नहीं जाना है उसके लिये उनके ज्ञान करानेका कोई उपाय भी नहीं है। १६४ क्षपितकाशकी कालपरिहानिस्थानप्ररूपणा, गुणितकर्मा शकी कालपरिहानिस्थानप्ररूपणा, क्षपितकाशकी सत्कर्मस्थानप्ररूपणा और गुणितकर्मा शकी सत्कर्मस्थानप्ररूपणा इस प्रकार चार प्रकारकी स्थानप्ररूपणा है। इनमेंसे दो छयासठ सागरप्रमाण कालको एक श्रेणीके आकार रूपमें स्थापित करके क्षपितकाशके कालकी हानिद्वारा स्थानकी प्ररूपणा करते हैं । वह इसप्रकार है-क्षपितकाशके लक्षणके साथ कर्मस्थिति काल तक सूक्ष्मनिगोदिया जीवोंमें रहकर, वहाँसे निकलकर पल्पोपमके असंख्यातवें भागप्रमाण संयमासंयमकाण्ड कोंको उससे कुछ अधिक सम्यक्त्वकाण्डकोंको और अनन्तानुबन्धीकषायके विसंयोजनाकाण्डकोंको करके फिर कुछ कम आठ संयमकाण्डकोंको करके और चार बार कषायोंका उपशमन करके असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो । वहाँ देवायुका बन्ध करके मरकर देवोंमें उत्पन्न १. ता०प्रतौ 'रहदूण इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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