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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १७३ च वड्डिदं ति । एवं वड्डिदूण हिदेण तिसमयूणवेछावहिं भमिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं धरेदूण हिदो सरिसो । एवं चदु-पंचसमयणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणा विदियछावहि त्ति । १७०. संपहि विदियछावट्ठिपढमसमए वेदगसम्मत्तं पडिवजिय अंतोमुहुत्तं' गमेदूण मिच्छत्तं खविय द्विदस्स तदेगणिसेगदव्वं दुसमयकालद्विदियं घेत्तूण परमाणुत्तरदुपरमाणुत्तर दिकमेण दोहि वड्डीहि अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसा अहियारहिदीए अंतोमुहुत्तमोकड्डिदण विणासिददव्वं पुणो जहण्णसम्मत्तद्धामेत्तकालं विज्झादेण परपयडीसु संकामिददव्वं च वड्डावेदव्वं । एत्थ अंतोमुहुत्तपमाणं' केत्तियं ? विदियछावहिपढमसमयप्पहुडि जहण्णसम्मत्तद्धासहिदमिच्छत्तक्खवणद्धमेतं हेडिमसम्मत्तसम्मामिच्छत्तक्खवणद्धामेत्तेग सादिरेयं । ओकडकड्डणभागहारोणाम पलिदो० असंखे०भागो। तं विरलिय अप्पिदणिसेगे समखंडं कादूण दिण्णे तत्थेगेगखंडे पडिसमयं हेट्ठा णिवदमाणे वेछावहिसागरोवमकालेण मिच्छत्तस्स सव्वे समयपबद्धा बंधाभावेण परपयडिदव्त्रपडिच्छण्णेण सगदव्वुक्कड्डणाए च उम्मुक्का कथं ण णिल्लेविजंति ? ण, उवसामणा-णिकाचणावृद्धि हो । इस प्रकार वृद्धिको करके स्थित हुआ जीव और तीन समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाला जीव ये दोनों समान होते हैं। इस प्रकार चार समय कम पच समय कम आदिके क्रमसे अन्तमुहूतकम दूसरे छयासठ सागर काल तक उतारते जाना चाहिये। $ १७०. अब दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर मिथ्यात्वका क्षपण करके स्थित जीवके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको लेकर उसपर एक परमाणुके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागबृद्धिके द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छविशेष, अधिकृत स्थितिमें अन्तर्मुहूर्त कालतक अपकर्षण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और सम्यक्त्वके जघन्य काल पर्यन्त विध्यातभागहारके द्वारा अन्य प्रकृतियोंमें संक्रान्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। शंका-यहाँ अन्तर्मुहूर्तका प्रमाण कितना है ? समाधान-यहाँ दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयसे लेकर सम्यक्त्वके जघन्यसहित मिथ्यात्वके क्षपण कालप्रमाण अन्तर्मुहूर्त है जो कि अधस्तन सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षपणकालसे अधिक है। शका-अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका प्रमाण पल्यका असंख्यातवां भाग है। उसका विरलन करके विवक्षित निषेकोंके समान खण्ड करके उसपर दो। उनमेंसे प्रतिसमय एक-एक खण्डका नीचे पतन होने पर दो छयासठ सागरप्रमाण कालके द्वारा मिथ्यात्वके सब समयप्रवद्धोंका अभाव क्यों नहीं हो जाता; क्योंकि मिथ्यात्वके बन्धका अभाव होनेसे न तो उसमें अन्य प्रकृतियोंका द्रव्य ही आता है और न अपने द्रव्यका उत्कर्षण ही संभव है ? . समाधान नहीं, क्योंकि यद्यपि मिथ्यात्वके स्कन्ध उक्त कालके भीतर परिणामान्तरको १. श्रा०प्रतौ 'पडि अंतोमुहुत्त' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'एव (द)मंत्तोमुहुत्तपमाणं' आप्रतौ 'एवमंतोमुहुत्तपमाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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