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________________ १९१ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं चरिमफालिदव्वमसंखेजगुणहीणं ति, तदसंखेजगुणत्तस्स कारणाणुवलंभादो। असंखेजरूवगुणिदवेछावहिअण्णोण्णब्भत्थरासीदो चरिमफालिआयामो असंखेजरूववड्डिदो वि संतो असंखेजगुणहीणो त्ति' काए जुत्तीए णव्वदे ? पुव्वं परूविदाए। ण च भागहारे बहुए संते लद्धपमाणं बहुअं होदि, विप्पडिसेहादो। तदो अत्थदो ओवट्टणादो' दुचरिमफालिदव्वमसंखेजगुणं ति सिद्धं ।। __ १८० संपहि इम चरिमफालिदव्वं परमाणुत्तरकमण दोवड्डीहि एगगोवुच्छमत्तम गसमएण ओकड्डणाए परपयडिसंकमण च विणासिददव्वमत्तं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो समयणवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय चरिमफालिं धरेदण द्विदजीवो सरिसो; पुव्विल्लेण वढाविददव्वस्स एत्थ खयाणुवलंभादो। पुणो इम घेत्तूण परमाणुत्तरकमण एगगोवुच्छमत्तम गसमएण ओकड्डणाए परपयडिसंकमण च विणासिददव्वमत्तं च वढावेदव्वं । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो दुसमयूणवेछावहिं भमिय मिच्छत्तचरिमफालिं धरेदूण विदखवगो सरिसो। एवं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणविदियछावहिमोदिण्णो त्ति । इममत्व दृविय अन्योन्याभ्यस्तराशि वह असंख्यातगुणी है, अतः एक समयकम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट गोपुच्छाओंसे अन्तिम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा हीन है, क्योंकि उसके असंख्यातगुणे होनेका कोई कारण नहीं है। शंका-असंख्यात रूपसे गुणित दो छ्यासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अन्तिम फालिका आयाम असंख्यात रूपसे बढ़ा हुआ होने पर भी असंख्यातगुणा हीन है यह किस युक्तिसे जाना ? समाधान-पहले कही हुई युक्तिसे जाना। दूसरे, भागहारके बहुत होने पर लब्धका प्रमाण बहुत नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेका निषेध है। अतः वास्तवमें अपवर्तनासे द्विचरिम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह सिद्ध होता है। ६१८०. अब इस अन्तिम फालिके दव्यको एक एक परमाण अधिकके क्रमसे दो वदियोंके द्वारा एक गोपुच्छप्रमाण तथा एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा विनष्ट हुए द्रव्यप्रमाण बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समयकम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके अन्तिम फालिको धारण करनेवाला जीव समान है, क्योंकि पहले जीवने जो द्रव्य बढ़ाया है उसका इस जीवके क्षय नहीं पाया जाता। फिर इस द्रव्यको लेकर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक गोपुच्छप्रमाण और एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनष्ट हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करनेवाला क्षपक जीव समान है। इस प्रकार जोनकर अन्तर्मुहूर्तकम दूसरे छयासठ सागर कालके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए। १. ता०प्रतौ 'असंखेजगुणो त्ति' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'अत्थदो अधदो प्रोवट्टणादो' इति पाठः । ३. ता०प्रती'-दब्वमेतं वद्राशेदवं' इति टाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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