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________________ १२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * मिच्छत्तस्स जहएणपदेससंतकम्मिो को होदि ? १३०. सुगमं। 8 सुहमणिगोदेसु कम्मढिदिमच्छिदाउमो तत्थ सव्वषहुआणि अपजत्तभवग्गहणाणि दीहाओ अपज्जत्तद्धामो तप्पामोग्गजहणणयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो। तदो तप्पाओग्गजहणियाए वड्डीए वडिदो। जीव देव हो सकता है। नरकमें भी यह व्यवस्था घटित करके बतला आये हैं। अतः देवसामान्यके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय नारकीके समान कहा। स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय भोगभूमिया तिर्यञ्चके होता है। अब इसे देवमें प्राप्त करना है अतः यहाँसे देव पर्यायमें ले जाना चाहिये । इसीलिये देवपर्यायके प्रथम समयमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय कहा। पहले देवोंके पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय ओघके समान बतलाया है। पर यह व्यवस्था अविकल नहीं बनती । बात यह है कि ओघसे पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय क्षपकश्रेणीमें होता है और देवोंके क्षपकणि सम्भव नहीं। सामान्यतः डेढ़ पल्यकी आयुवाले देवके पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय अन्तिम समयमें होता है, अतः यहाँ देवके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय कहा । देवके नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय जो ओघके समान बतलाया है सो यह स्पष्ट ही है। कुछ मौके उत्कृष्ट संचयको छोड़कर यह सब व्यवस्था भवनत्रिकके भी बन जाती है, इसलिये इनके सम्यक्त्व और तीन वेदोंके सिवा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य देवोंके समान कहा । यहाँ कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, इसलिये भवनत्रिकके सम्यक्त्व का भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। तथा अपने-अपने स्थानमें स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करके और वहाँ से च्युत होकर जब भवनत्रिकमें उत्पन्न होते हैं तब भवनत्रिकमें इनका उत्कृष्ट संचय प्राप्त होता है, इसलिये भवनत्रिकके उत्पन्न होनेके पहले समयमें तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय कहा। सामान्य देवोंके जो व्यवस्था बतलाई है वह सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें अविकल बन जाती है, इसलिये इन स्थानोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य देवोंके समान कहा। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रारतक भी यही जानना । किन्तु तीन वेदोंका कथन भवनत्रिकके समान है। बात यह है कि तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय सनत्कुमारादिमें तो होता नहीं, अतः अपने-अपने स्थानमें इनका उत्कृष्ट संचय प्राप्त कराके क्रमसे सनत्कुमारादिकमें उत्पन्न कराना चाहिये तब सनत्कुमारादिकमें तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय प्राप्त होगा। इसी प्रकार भवनत्रिकमें तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय प्राप्त होता है इसलिये सनत्कुमारादिकमें तीन वेदोंका भंग भवनत्रिकके समान कहा है। ओनतादिकमें मनुष्य ही उत्पन्न होता है। इसमें भी नौ ग्रैवेयक तक द्रव्यलिंगी मुनि भी पैदा हो सकता है। और यहाँ उत्कृष्ट संचय प्राप्त कराना है, अतः आनतादिकमें द्रव्यलिंगी मुनी उत्पन्न कराया गया है। शेष कथन सुगम है। किन्तु अनुदिश आदिमें भावलिंगी ही उत्पन्न होता है, किन्तु अधिक निर्जरा न हो जाय इसलिए वर्षपृथक्वकी आयुवाले मनुष्यको ही वहाँ उत्पन्न कराना चाहिए। ॐ मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मवाला कौन होता है ? ६ १३०. यह सूत्र सुगम है। जो जीव सूक्ष्मनिगोदियोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा । वहां उसने अपर्यासकके भव सबसे अधिक ग्रहण किये और अपर्याप्तकका काल दीर्घ रहा । तथा निरन्तर अपर्याप्तकके योग्य जघन्य योगस्थानोंसे युक्त रहा। उसके बाद तत्प्रायोग्य जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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