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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेस हत्तीए सामित्तं १२३ सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होता, अतः उसने तिर्यञ्चके संख्यात भवग्रहण किये और ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुआ जिस पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करने की योग्यता आ गई। तब उस पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यग्मिथ्यात्वका संचय किया। इस प्रकार तिर्यश्चके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त हो जाता है । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च और पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तके उक्त स्वामित्व अविकल बन जाता है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट संचयके स्वामित्वको सामान्य तिर्यश्चोंके समान कहा । यह व्यवस्था योनिमती तिर्यंचोंमें भी बन जाती है परन्तु यहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिका अपवाद है। बात यह है कि योनिमती तिर्यश्चोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, अतः यहाँ सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। सातवें नरकसे निकला हुआ जीव सीधा लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्च नहीं हो सकता, किन्तु इस पर्यायको प्राप्त करनेके लिए ऐसे जीवको तिर्यश्चके संख्यात भव लेना पड़ते हैं। यही कारण है कि उच्चारणामें सातवें नरकसे निकलकर तिर्यञ्चोंके संख्यात भव धारण करनेके बाद लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यञ्चके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट संचय बतलाया है। सम्यक्त्र और सम्याग्मथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेके लिए लब्ध्य पर्याप्त पर्यायके पहले पूर्व पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त कराना चाहिये और अतिशीघ्र मिथ्यात्वमे ले जाकर गुणश्रेणियोंकी निर्जरा होनेके पहलो ही लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्चोंमें उत्पन्न करा देना चाहिये। इस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्च के उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त हो जाता है। पहले गुणितकर्माशवाले जीवके स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय क्रमसे भोगभूमिमें, डेढ पल्यकी आयुवाले देवोंमें और ईशान स्वर्गमें करावे। बादमें उसे यथाविधि अतिशीघ्र लब्ध्यपर्याप्तक तियश्चमें उत्पन्न करावे । इस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्चके अपने उत्पन्न होनेके पहले समयमें उत्कृष्ट संचय प्राप्त होता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यके यह व्यवस्था अविकल बन जाती है, इसलिए इनके सब कर्मों के उत्कृष्ट संचयको लब्ध्यपर्याप्तक तियश्चोंके समान कहा । अब मनुष्यगतिमें विचार करते हैं । सातवें नरकसे िकला हुआ जीव सीधा मनुष्य नहीं हो सकता। उसे बीचमें तियञ्चोंकी संख्यात पर्याय लेना पड़ती हैं। इसी कारण सामान्य मनुष्यके मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायका उत्कृष्ट संचय लब्ध्यपर्याप्त तिर्यश्चके समान कहा। ओघसे सम्यक्त्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके समय प्राप्त होता है । यह अवस्था मनुष्यके ही होती है, अतः मनुष्यके उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय ओघके समान कहा। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय क्रमशः भोगभूमि और ईशानस्वर्गमें बतलाया है। इसके वहाँसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होने पर मनुष्यके उक्त कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेश संचय होता है। इसीसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करके अनन्तर मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होने पर उत्पन्न होनेके पहले समयमें इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय कहा । सामान्य मनुष्योंके जो व्यवस्था कही है वह मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनीके भी अविकल बन जाती है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य मनुष्यके समान कहा। अब देवगतिमें विचार करते हैं। मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषाय इनका उत्कृष्ट संचय गुणित कौशवाले जीवके सातवें नरकके अन्तिम समयमें होता है। अब इन कर्मोका सामान्य देवोंमें उत्कृष्ट संचय प्राप्त करना है, इसलिये ऐसे जीवको देवपर्यायमें उत्पन्न कराना चाहिए। पर यह सीधा देव नहीं हो सकता, अतः बीचमें तियश्च पर्यायके संख्यात भव ग्रहण कराए हैं। यही देव अन्तर्मुहूर्तमें जब सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो इसके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त हो जाता है। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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