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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडपदेसविहत्तीए सामित्तं जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पा ओग्गउक्कस्सएस जोगट्ठाणेसु वदृदि । हे डिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदेसतप्पा ओग्गं उक्कस्सविसोहिमभिक्खं गदो । जाधे अभवसिद्धियपाओग्गं जहणणंगं कम्मं कदं तदो तसे आगदो । संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धो । चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो वेलावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिदूग तदो दंसणमोहणीयं खवेदि । पच्छिमट्ठि दिखंडयमवणिज्जमाण्यमवणिदमुदयावलियाए जं तं गलमाणं तं गलिदं । जाधे एकिस्से द्विदीए समयकाल हिदिगं सेसं ताचे मिच्छुत्तस्स जहणयं पदेससंतकम्म । S १३१. सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदो ति णिसो बादरणिगोदादिसु तद्वद्वाणपडिसेहफलो | ण सुहुमणिगोदेसु कम्मडिदिअवट्ठाणं फलविरहियं, बादरादिजोगेहिंतो असंनेज्जगुणहीणसुहुमणिगोदजोगेण थोवपदेसेसु आगच्छमाणेसु खविदकम्मंसियत्तफलोवलंभादो । तत्थ सव्वबहुआणि अपजत्तभवग्गहणाणि दीहाओ अपजत्तद्धाओ त्ति वयणेण कम्मट्ठिदिं हिंडमाणसुहुमणिगोदस्स भवावासेण सह अद्धावास परुविदो । किमहमद्धावासो परूविजदे ? पजत्तजोगेहिंतो असंखे०गुणहीण १२५ वृद्धि बढ़ा | जब जब आयुका बंध किया तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानों में ही बंध किया । नीचे की स्थिति निषेकोंको उत्कृष्ट प्रदेशवाला और निरन्तर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ । 'जब अभव्यके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म हुआ तब सोंमें आगया । वहाँ संयम संयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेकवार प्राप्त किया । चार बार कषायों का उपशम करके फिर एकसौ बत्तीस सागर तक सम्यक्त्वको पालकर उसके बाद दर्शनमोहनीयका क्षपण करता है । क्षपण करनेके योग्य अन्तिम स्थितिकाण्डका क्षपण करके उदयावलीमें जो द्रव्य गल रहा है उसको गलाकर जब एक निषेककी दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब उसके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । § १३१. 'सूक्ष्मनिगोदियों में कर्मस्थितिकाल तक रहा' यह निर्देश बादर निगोदिया जीवोंमें उस जीवके रहनेका प्रतिषेध करता है । तथा सूक्ष्मनिगोदियों में कर्मस्थिति काल तक रहना निष्फत नहीं है, क्योंकि बादर आदि जीवोंके योग्य योगसे असंख्यातगुणा हीन सूक्ष्म निगोदिया जीवके योग द्वारा थोड़े कर्मप्रदेशोंका आगमन होनेसे क्षपित कर्माश रूप फल पाया जाता है 'वहाँ उसने अपर्याप्तकके भव सबसे अधिक ग्रहण किए और अपर्याप्तकका काल दीर्घ रहा' ऐसा कहनेसे कर्मस्थिति काल तक भ्रमण करनेवाले सूक्ष्मनिगोदिया जीवके भवावास के भवरूप आवश्यकके साथ-साथ अद्धावास - कालरूप आवश्यक बतलाया है । शंका- अद्धावास क्यों बतलाया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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