SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए वड्ढीए कालाणुगमो छ चोदसभागा देसूणा । पढमाए खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमा त्ति असंखे०भागवड्डि-हा०अवहि० सगपोसणं कायव्वं । सव्वपंचिदियतिरिक्ख-सव्वमणुस० असंखे०भागवड्डि-हाणिअवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। देवेसु असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवहिदाणि लोग० असंखे०भागो अह णव चोहसभागा देसूणा । एवं सोहम्मीसाण० । भवणवाण-०-जोदिसि० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवट्ठि. लोग० असंखे०भागो अद्भुट्ठा वा अट्ठ णव चो०भागा। उवरि सगपोसणं णेदव्वं । एवं जाव अणाहारि ति। ६६७. णाणाजीवेहि कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०भागवडि-हा०-अवढि० केवचिरं ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि केव० १ सव्वद्धा । अवहि० केव० १जह० एगस०, उक्क. आवलि०असंखे० भागो। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-देवा भवणादि जाव अवराइदा त्ति । मणुसपज्जत्त- मणुसिणीसु असंखे०भागवड्डि-हा० सव्वद्धा । अवहि० वसनालीके कुछ कम छ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन करना चाहिये। सब पञ्चेन्द्रिय तियश्च और सब मनुष्योंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और सर्वलोक है। देवोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और सनालीके कुछ कम आठ तथा कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण है। इसी प्रकार सौधर्म, ईशान स्वर्गके देवोंमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और चौदह राजुओं में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भाग है । ऊपरके देवोंमें अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-ओघ और आदेशसे जिनका जितना क्षेत्र है तीनों विभक्तिवालोंका वहाँ उतना ही क्षेत्र है यह पूर्वोक्त कथनका तात्पर्य है। सो ही बात स्पर्शनानुगमकी समझनी चाहिये। ओघसे जो स्पर्शन है वह यहाँ तीनों विभक्तिवालोंका ओघसे स्पर्शन प्राप्त होता है और प्रत्येक मार्गणाका जो स्पर्शन है वह यहाँ उस उस मार्गणामें तीनों विभक्तिवालोंका प्राप्त होता है, इसलिये अलग-अलग प्रत्येकका खुलासा नहीं किया। ६ ६७. नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि,असंख्यातभागहानिऔर अवस्थितविभक्तिवालोंका कितना काल है ? सर्वदा है। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमानतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy