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गा २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३३ ६ १३३. एत्थ सामित्तहिदीए कम्मटिदिपढमसमयप्पहुडि पलिदो० असंखे०भागेणब्भहियवेछावट्ठिसागरोवमेसु बद्धदव्वस्स एगो वि परमाणू णत्थिः कम्महि दिबाहिरे पलिदो० असंखे०भागेणब्भहियवेछावहिसागरोवमकालं परिभमियत्तादो। तत्तो बाहिं परिभमिदो त्ति कुदो णव्वदे ? अभवसिद्धियपाओग्गं जहण्णयं कम्मं कदो तदो तसेसु आगदो ति सुत्तादो । ण च सुहुमेइंदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्मट्ठिदिमणच्छिदभवसिद्धियजीवस्स संतकम्ममभवसिद्धियजहण्णसंतकम्मेण समाणं होदि, चूर्णिसूत्र
वेदनाखण्ड स्वामी
काल
स्वामी । काल सूक्ष्कएकेन्द्रिय कर्म स्थितिप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय | पल्यका असंख्यातवाँ
भाग कम कर्मस्थितिप्र० त्रस
संयमासंयम, संयम बादर पृथिवी पर्याप्त और सम्यक्त्वको
मनुष्य
पूर्व कोटि अनेक बार प्राप्त किया चार बार कषायका
उपशम किया। देव दस हजार वर्ष
दस हजार वर्ष बादर पृथिवी कायिक
बादर पृथिवी पर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पल्यका असंख्यातवाँ। सभा एकेन्दिय पल्यका असंख्यातों
भाग बादर पृथिवी कायिक
बादर पृथिवी पर्याप्त पर्याप्त मनुष्य ___ आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त
| पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयम और सम्यक्त्व, ३२ बार संयम और चार
बार कषायका उपशम सम्यक्त्वके साथ । १३२ सागर ।
एक पूर्वकोटि ६ १३३. स्वामित्वविषयक इस निषेकमें कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो छथासठ सागरमें बाँधे गये द्रव्यका एक भी परमाणु नहीं है। क्योंकि वह जीव कर्मस्थिति कालसे बाहर अर्थात् उससे अतिरिक्त पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो छयासठ सागर काल तक घूमा है।
शंका-वह जीव कर्मस्थिति कालसे बाहर भी घूमा है। यह कैसे जाना ?
समाधान-अभव्यके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म करके फिर सोंमें आगया इस सूत्रसे जाना।
तथा जो भव्य जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें क्षपितकाशकी विधिके साथ कर्मस्थितिकाल तक नहीं रहा उसका सत्कर्म अभव्य जीवके जघन्य सत्कर्मके समान नहीं होता, क्योंकि उसके
भाग
त्रस
मनुष्य
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