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________________ १३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे Jain Education International कराया है । । इस प्रकार जब यह जीव त्रसोंमें उत्पन्न हो जाय तो वहाँ संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेक बार प्राप्त करावे और बार बार कषायका उपशम करावे | यह नियम है कि एक जीव पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयम और सम्यक्त्वको प्राप्त हो सकता है और बत्तीस बार संयमको प्राप्त हो सकता है । पर यहाँ इस प्रकारकी संख्याका निर्देश नहीं किया जब कि वेदनाखण्ड में इसी प्रकरणमें इस प्रकारकी संख्याका स्पष्ट निर्देश किया है ? यहां संख्याका निर्देश न करनेका कारण यह है कि आगे चलकर इस जीवको सम्यक्त्व के साथ एक सौ बत्तीस सागर काल तक परिभ्रमण और कराया है अब यदि यह जीव सम्यक्त्व आदिको अधिक से अधिक जितनी बार प्राप्त करना चाहिये उतनी बार प्राप्त करले तो फिर इसका एक सौ बत्तीस सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ और परिभ्रमण करना सम्भव नहीं हो सकता। यही कारण है कि यहां स्पष्टतः संख्याका निर्देश नहीं किया है । किन्तु वेदनाखण्ड में ऐसे जीवको अलग से सम्यक्त्वके साथ एक सौ बत्तीस सागर काल तक परिभ्रमण नहीं कराया है, इसलिये वहाँ संख्याका निर्देश स्पष्टतः कर दिया है। इस प्रकार उक्त क्रिया कर लेनेके बाद एक सौ बत्तीस सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करावे यह चूर्णिसूत्र में बतलाया है पर वीरसेन स्वामीं इसकी टीका करते हुए लिखते हैं कि इन दोनों के बोचमें पहले इसे दस हजार वर्षकी आयु वाले देवोंमें उत्पन्न करावे । अनन्तर यथाविधि सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न करावे । यहाँ यथाविधि या समयाविरोधसे लिखनेका कारण यह है कि देव मर कर सीधा सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, अतः पहले उसे अन्यत्र उत्पन्न कराना चाहिये और बादमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न करावे | यहां रहकर यह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकों का घात करता है । एक स्थितिकाण्डक घात के लिये अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकोंका घात करनेके लिये भी पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल लगेगा, क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागको एक अन्तर्मुहूर्तसे गुणित करने पर भी पल्यका असंख्यातवां भाग ही प्राप्त होता है। इसके बाद इस सूक्ष्म एकेन्द्रियको यथाविधि मनुष्यों में उत्पन्न करावे और पश्चात् एक सौ बत्तीस सागर कालतक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करावे । तदनन्तर दर्शनमोनीयका क्षय कराते हुए मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त करे | वेदनाखण्ड में पल्यका असंख्यातवां भागक्रम कर्मस्थितिप्रमाण कालतक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराने के बाद क्रमशः बादर पृथिवीकायिकों में, मनुष्योंमें, दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें, बादर पर्याप्त पृथिविकायिकों में उत्पन्न कराया है । यहाँ मनुष्यों और देवोंमें क्रम से संयम और सम्यक्त्व को भी प्राप्त कराया है। अनन्तर सूक्ष्स पर्याप्त निगोदियों में उत्पन्न कराकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकों का घात करनेके लिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक वहीं रहने दिया है । अनन्तर बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न कराकर फिर सोंमें उत्पन्न कराया है और यहां पल्यके असंख्यातवें भागवार संयमासंयमको इतने ही बार सम्यक्त्वको, बत्तीस बार संयमको और चार बार उपशमश्रेणिको प्राप्त कराया है । फिर अन्त में एक पूर्वकोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न कराकर और अतिशीघ्र संयमको प्राप्त कराकर जीवन भर संयम के साथ रखा है और जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब दर्शनमोहनीयका क्षय कराते हुए मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त किया गया है । इस प्रकार वेदनाखण्डके कथनको और चूर्णिसूत्रके कथनको मिलाकर पढ़ने पर जो विशेषता ज्ञात होती है उसका कोष्टक इस प्रकार है [ पदेसविहत्ती ५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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