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________________ गा २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १३१ तेतीस सागर बतलाई है। अब यदि दोइन्द्रिय पर्याप्तकोंके निरन्तर उत्पन्न होनेके बार अस्सी लिये जाते हैं तो कुल ९६० वर्ष प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार तेइन्द्रिय पर्याप्त कके लगातार उत्पन्न होनेके कुल भव साठ लिये जाते हैं तो कुल आठ वर्ष दो माह प्राप्त होते हैं और चौइन्द्रिय पर्याप्तकके लगातार उत्पन्न होनेके कुल भव चालीस लिये जाते हैं तो कुल बीस वर्ष प्राप्त होते हैं परन्तु कालानुयोगदारमें एक जीवकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट काय स्थिति संख्यात हजार वर्षे कही है। इससे स्पष्ट है कि विकलत्रयके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा अपर्याप्त भव कम होते हैं। इस प्रकार जो बात विकलत्रयकी है वही बात अन्य जीवोंकी भी जानना। इससे स्पष्ट है कि यहाँ क्षपित कर्मा शवाले निगोदिया जीवके अपने पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा अपर्याप्तक भव अधिक नहीं लिये हैं किन्तु गुणितको शवाले आदि जीवोंके जितने अपर्याप्त भव होते हैं उनकी अपेक्षा यहां अपर्याप्त भव अधिक लिये हैं। तथा इस क्षपितकर्मा शवाले जीवके अपर्याप्त काल अधिक होता है और पर्याप्त काल थोड़ा। इसका यह तात्पर्य है कि गुणितकर्माश आदि वाले जीवको जितना अपर्याप्त काल प्राप्त होता है उससे इसका अपर्याप्त काल काल बड़ा होता है और उनके पर्याप्त कालसे इसका पर्याप्त छोटा होता है। इसका अपर्याप्त काल बड़ा बतलानेका कारण यह है कि पर्याप्त कालके योगसे अपर्याप्त कालका योग असंख्यातगुणा हीन होता है और इससे अधिक कर्मोंका संचय नहीं होता। सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य योगस्थान भी होता है और उत्कृष्ट योगस्थान भी होता है। यतः यह क्षपितकर्मा शवाला जीव है अतः इसे निरन्तर यथासम्भव जघन्य स्थान प्राप्त कराया है। इसका यह तात्पर्य है कि जब जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त करनेके बार पूरे हो जाते हैं तब यथासम्भव उत्कृष्ट योगस्थानको भी प्राप्त होता है। इसका भी फल कोका कम संचय कराना है। इसके योगस्थानोंकी जघन्य और उत्कृष्ट दोनों वृद्धियां सम्भव हैं, अतः उत्कृष्ट वृद्धि का निषेध करनेके लिये जघन्य वृद्धिका विधान किया है । इस क्षपितकर्मा शवाले जीवके मोहनीयको कम कर्मपरमाणु प्राप्त हों इसलिये इसके सदा आयुबन्ध उत्कृष्ट योगसे कराया। क्षपितकर्मा शवाला जीव गुणितकर्मा शवाले जीवकी अपेक्षा अपकर्षण अधिक कर्मोंका करता है जिससे निरन्तर अधिक कर्मोकी निर्जरा होती रहती है यह बतलानेके लिये नीचेकी स्थितियोंको अधिक प्रदेशवाला कराया है। अधिकतर बहुतसे कर्म संक्लेशकी अधिकतासे उपशम, निधत्ति और निकाचनारूप रहे आते हैं । यतः यह क्षपितकर्माश जीव है अतः इसके इन भावोंका निषेध करनेके लिये सदा विशुद्ध परिणामोंकी बहुलता बतलाई है। इस प्रकार पूर्वोक्त छह आवश्यकोंके द्वारा सूक्ष्म निगोदियोंमें कर्मस्थिति काल तक परिभ्रमण कराने पर जब इसका अभव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म हो जाता है तब सम्यक्त्वादि गुणोंके द्वारा कर्मोंकी और निर्जरा करानेके लिये इसे त्रसोंमें उत्पन्न कराना चाहिये। वेदनाखण्डमें इसे पहले बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराया है। वहां यह प्रश्न किया गया है कि सूक्ष्मनिगोदसे निकालकर इसे सीधा मनुष्यों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया है? तो वीरसेन स्वामीने वहां इस प्रश्नका यह समाधान किया है कि यदि सूक्ष्म निगोदसे निकालकर सीधा मनुष्योंमें उत्पन्न कराया जाता है तो वह केवल सम्यक्त्व और संयमासंयमको ही ग्रहण कर सकता है तब भी इनको अतिशीघ्र ग्रहण न करके ऐसे जीवको इनके ग्रहण करने में अधिक काल लगता है, इसलिये इसे पहले बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराया है। इस पर पुनः प्रश्न उठा कि तो केवल बादर पृथिवीकायिकोंमें ही क्यों उत्पन्न कराया गया है तो इसका वीरसेन स्वामीने यह समाधान किया है कि जलकायिक आदिसे जो मनुष्य में उत्पन्न होता है वह अतिशीघ्र संयम आदिको नहीं ग्रहण कर सकता, अतः सर्व प्रथम बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों में ही उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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