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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३२७ ३६७. पुणो इमाओ दुचरिमफालोओ चरिमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा–रूवूणअधापवत्तमेत्ताणं दचरिमफालीणं जदि एगा चरिमफाली लब्भदि तो ओदिण्णद्धाणमत्ताणं दचरिमफालीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमत्ता अचरिमफालीओ लभंति । पुणो एत्तियमद्धाणं पुणरवि तिचरिमसमयसवेदो ओदारेदश्वो । संपहि इमम्मि तिचरिमसमयसवेदे तप्पाओग्गजहण्णजोगादो हेहि मद्धाणमत्ताणि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदे चरिमफालियाए उक्कस्सजोगहाणद्धाणपरिवाडी सयला लद्धा होदि । पुणो एत्तो उवरिमजोगट्ठाणेसु परिणमाविय णाणाजीवे अस्सिदूण वड्डावदव्व जावुक्कस्सजोगहाणं पत्तं ति । एवं वड्डाविदे उक्कस्सजोगेण बद्धचरिमसमयसवेदस्स तिचरिमफाली तस्सेव दुचरिमफाली च उक्कस्सा जादा । एवमेत्थ पुब्बिल्लहाणेहि सह तिगुणजोगहाणद्धाणमेत्तसंतकम्महाणाणि समधियाणि समुप्पजति १२८।१३।३।। $ ३६८. संपहि एदेण कमेण जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव अवगदवेदपढमसमओ त्ति । एवमोदारिदे अवगदवेदपढमसमयम्मि तिसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणं सव्वचरिमफालियाहि पादेक सयलजोगहाणद्धाणमेत्तसंतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि त्ति । ६ ३६७. पुनः इन द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथाएक कम अधःप्रवृत्तमात्र द्विचरम फालियोंकी यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो जितना अध्वान नीचे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण चरम फालियाँ लब्ध आती हैं। पुनः इतना अध्वान जाने तक फिर भी विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको उतारना चाहिए । अब इस त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवके तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे अधस्तन अध्वानमात्र योगस्थान ऊपर चढ़ने पर चरम फालिकी समस्त उत्कृष्ट योगस्थान अध्वान परिपाटी लब्ध हो जाती है। पुनः इससे आगे उपरिम योगस्थानोंमें परिणमन कराते हुए नाना जीवोंका आश्रय लेकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर उत्कृष्ट योगसे बाँधी गई चरम समयवर्ती सवेदी जीवकी त्रिचरम फालि और उसीकी द्विचरम फालि उत्कृष्ट हो जाती है । इस प्रकार यहाँ पर पहलेके स्थानोंके साथ, साधिक तिगुने योगस्थान अध्वानमात्र सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं २२८ १८३ । ६३६८. अब इस क्रमसे जानकर अपगतवेदी जीवको प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर अपगतवेदी जीवके प्रथम समयमें तीन समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंकी सब अन्तिम फालियोंके साथ अलग अलग समस्त योगस्थान अध्वान मात्र सत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं। इन्हें पृथक् स्थापित करना चाहिए। पुनः चरम समयवर्ती १. ता प्रतौ १२८, २, ३, १२८, ३।' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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