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________________ ३७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एगेगपक्खेवाहियजोगट्ठाणम्मि द्वविय णेयव्वं जाव दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपरिवाडीओ समत्ताओ ति । ४२५. संपहि तत्थ सव्वपच्छिमपरिवाडी उच्चदे। तं जहासवेदतिचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगेण चरिम-दुचरिमसमएसु दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेवाहियजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए द्विदखवगट्ठाणं अपुणरुत्तं होदूण सव्वपच्छिमअत्थट्टाणपरिवाडीए आदिमं होदि । एवमुवरि सव्वसंधीओ जाणिय णेदव्यं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपवद्धा उकस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविय तिचरिमफालिविसेसमस्सिदूण गंथट्ठाणाणमंतरेसु दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्ताणि अत्थट्टाणाणि समुप्पण्णाणि ण वडिमाणि, रूऊणअधापवत्तभागहारमेत्ततिचरिमफालिविसेसेहि एगदुचरिमफालीए समुप्पत्तीदो। एवं तिचरिमफालिविसेसे अस्सिदण अत्थहाणपरूवणा कदा । चदुचरिमादिफालिविसेसे वि अस्सिदूण अत्थट्ठाणपरूवणा कायव्वा । एगफालिक्खवगस्स गथट्ठाणाणि जोगट्ठाणमेत्ताणि । ताणि पडिरासिय दुरूऊणअधापवत्तभागहारेण गुणिदेसु एगफालिखवगस्स गंथट्ठाणंतरेसुप्पण्णदुचरिमफालिहाणाणि होति । एदाणि पडिरासिय दुरूऊणअधापवत्तभागहारेण गुणिदेसु तत्थुप्पण्णतिचरिमफालिविसेसहाणाणि होति । एवमणंतराणंतरुप्पण्णढाणाणि पडिरासिय दुरूऊणअधापवत्तभागहारेण गुणिय णेदव्वं जाव समयूणआवलियमेत्तं ति । एवमेदेसु प्रक्षेप अधिक योगस्थानमें स्थापित कर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र परिपाटियोंके समाप्त होने तक ले जाना चाहिए । ६ ४२५. अब वहाँ पर सबसे अन्तिम परिपाटीका कथन करते हैं। यथा-सवेद भागके त्रिचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे तथा चरम और द्विचरम समयमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान अपुनरुक्त होकर सबसे अन्तिम अर्थस्थान परिपाटीमें प्रथम होता है। इस प्रकार ऊपर सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर विचरमफालिविशेषका आश्रय कर ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र अर्थस्थान उत्पन्न हए, बढ़े हुए नहीं, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्तमागहारम फालिविशेषोंसे एक द्विचरम फालि उत्पन्न हुई है। इस प्रकार त्रिचरम फालिविशेषोंका आश्रय कर अर्थस्थान प्ररूपणा की। चतुश्चरम आदि फालिविशेषोंका भी आश्रय कर अर्थस्थानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए। एक फालिक्षपकके ग्रन्थस्थान योगस्थानप्रमाण हैं। उन्हें प्रतिराशि करके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित करने पर एक फालिक्षपकके ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंमें उत्पन्न हुए द्विचरम फालिस्थान होते हैं। इन्हें प्रतिराशि करके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित करने पर वहाँ पर उत्पन्न हुए त्रिचरम फालिविशेष स्थान होते हैं । इस प्रकार अनन्तर अनन्तर उत्पन्न हुए अनन्त स्थानोंको प्रतिराशि करके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित कर एक समय कम आवलिमात्र तक ले जाना चाहिये। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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