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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३७१ समुपणाणि । एवं तिचरिमफालि विसेसद्वाणाणं सव्वपच्छिमपत्थारे पढमपरिवाडी समत्ता । $ ४२३. संपहि विदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा - सवेदचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगादो दुरूऊगअधापवत्तभागहारमे तपक्खेवाहियजोगेण दुरिमसमए एगपक्खेउत्तरजोगेण तिचरिमसमए घोलमाण जहण्णजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए दिक्खवगट्ठाणमपुणरुत्तं । पुणो एगफालिक्खवगमेगेग पक्खे उत्तरकमेण वड्डाविय अपुणरुत्तद्वाणाणि सव्वसंधीओ जाणिय उप्पादेदव्वाणि जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं विदियपरिवाडी समत्ता | $ ४२४. संपहि तदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा - सवेदचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगादो दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत पक्खेवुत्त रजोगेण दुचरिमसमए दुपक्खेउत्तरजोगेण तिचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए दिखवगहाणमपुणरुचं होण तदियपरिवाडीए आदिमं होदि । पुणो एगफा लिक्खवगमेगेगपक्खे उत्तरकमेण वड्डाविय सव्वसंधीओ अवहारिय णेदव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उकस्सजोग' पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे तदियपरिवाडी समप्पदि । संपहि चउत्थ-पंचमादिपरिवाडीसु भण्णमाणासु तिण्णिफालिक्खवगं दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत पक्खे उत्तरजहण्णजोगम्मि चैव दुविय दोफालिक्खवर्ग परिवार्डि पडि प्रकृत अर्थस्थान उत्पन्न हुए । इस प्रकार त्रिचरम फालिविशेषस्थानोंके सबसे अन्तिम प्रस्तार में प्रथम परिपाटी समाप्त हुई । $ ४२३. अब द्वितीय परिपाटीका कथन करते हैं । यथा - सवेदभागके चरम समय में घोलमान जघन्य योगसे और दो रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगसे, द्विचरम समय में एक प्रक्षेप अधिक योगसे तथा त्रिचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समय में स्थित हुआ क्षपकस्थान अपुनरुक्त है । पुनः एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिक क्रमसे बढ़ाकर अपुनरुक्त स्थान सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिए। इस प्रकार दूसरी परिपाटी समाप्त हुई । ४२४. अब तृतीय परिपाटीका कथन करते हैं । यथा - सवेद भाग के चरम समय में घोलमान जघन्य योगसे और दो रूप कम अधः प्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगसे, द्विचरम समय में दो प्रक्षेप अधिक योगसे तथा त्रिचरम समय में घोलमान जघन्य योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समय में स्थित हुआ क्षपकस्थान अपुनरुक्त होकर तृतीय परिपाटीके अनुसार प्रथम होता है । पुनः एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाकर सब सन्धियोंका अवधारण कर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए | इस प्रकार बढ़ाने पर तृतीय परिपाटी समाप्त होती है । अब चतुर्थ और पञ्चम आदि परिपाटियोंका कथन करने पर तीन फालिक्षपकको दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक जघन्य योग में ही स्थापित कर तथा दो फालिक्षपकको परिपाटीके प्रति एक एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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