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________________ गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २७५ घेत्तण देसूणपुव्वकोडिं विहरिय चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय णqसयवेदस्स एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण हिदो सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव विदियछावहिपढमसमओ ति। पढमलावट्ठीए ओदारिजमाणाए सम्मामिच्छत्तकालन्भंतरे णत्थि विसेसो त्ति पढमछावही वि पुत्वविहाणेण ओदारेदव्वा जाव खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण तिपलिदोवमिएसु उववजिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वे ति सम्मत्तं घेत्तूण दिवड्डपलिदोवमाउएसु देवेसुप्पन्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे आउए मिच्छत्तं गंतूण पुव्वकोडीए उप्पजिय पुणो जोणिगिक्खमणजम्मणेण' अंतोमुहत्तब्भहियअट्टवस्साणि गमिय सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तण देसणपुचकोडिं विहरिय चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुटिय णवंसयवेदस्स एगणिसेगमेगसमयकालं धरिय हिदो त्ति । ६२८०. संपहि देवाउअमोदारेदुं ण सक्विजदि, सोहम्मे समुप्पजमाणसम्मादिट्ठीणं दिवड्डपलिदोवमादो हेट्ठा जहण्णाउआमावादो । सम्मादिट्ठी समऊणदिवड्डपलिदोवमाउएसु देवेसु ण उप्पजदि त्ति कुदो णव्वदे ? सुत्तसमाणाइरियवयणादो। संपहि तिण्णिपलिदोवमाणि ओदारेहामो। तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ प्राप्त हुआ । पश्चात् कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार कर चरित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। पश्चात् जो नपुंसकवेदकी एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये । प्रथम छयासठ सागर कालके उतारने पर सम्यग्मिथ्यात्व कालके भीतर कोई विशेषता नहीं है, इसलिये प्रथम छयासठ सागर कालको भी पूर्व विधिके अनुसार क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर, तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हो पश्चात् जीवनमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तर डेढ़ पल्यको आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहां आयुमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर मिथ्यात्वमें जाकर पश्चात् पूर्वकोटिकी आयुवले मनुष्यों में उत्पन्न होकर फिर योनिसे निकलनेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हो पश्चात् कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक बिहार करने के बाद चरित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो नपुसकवेदके एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। ६२८०. अब देवायुको उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टियोंके डेढ़ पल्यसे कम जघन्य आयु नहीं होती। शंका-सम्यग्दृष्टि जीव एक समय कम डेढ़ पल्यकी आयुवाले देवोंमें नहीं उत्पन्न होता यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समासान-सूत्रके समान आचार्यवचनसे जाना जाता है। अब तीन पल्यको उतारकर बतलाते हैं जो इसप्रकार है-क्षपितकर्मा शकी विधिसे १. मा०प्रतौ -जोगिणिक्कमणजम्मणेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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