SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवडासहिदे कसायपाहुडे [परेसविहत्तीय समयसवेदस्स प्रकम्मं होदि । ६३१६. कुदो ? पद्धपढमसमयादो गणिजमाणे तत्थ संपुण्णाणं दोण्हमावलियाणमुवलंभादो।। जे तिस्से चेव दुचरिमसमयसवेदावलियाए विदिसमए बलुतं पढमसमयअवेदस्स अकम्मं होदि। .६३१७. कुदो ? बद्धपढमसमयादो अवगदवेदपढमसमयम्मि संपुण्णाणं दोण्हमावलियाणमुवलंभादो । तं वि कुदो ? सवेदस्स आवलिया सवेदावलिया। दुचरिमा च सा सवेदावलिया च दुचरिमसवेदावलिया । तिस्से विदियसमए पबद्धसमयपबद्धस्स णिरुद्धत्तादो। * एदेण कारणेण वेसमयपषद्ध ण लहदि अवगदवेदो। . $ ३१८. जेणेवं दुचरिमसवेदावलियाए पढम-विदियसमएसु बद्धसमयपबद्धा पढमसमयअवेदस्स पत्थि तेण कारणेण वेसमयपबद्ध सो ण लहदि ति दहव्व। तेणेत्तिया समयपबद्धा तत्थ अस्थि त्ति जाणावणमुत्तरसुत्तमागदं ॐ सवेदस्सा दुचरिमावलियाए दुसमयूणाए चरिमावलियाए एव्बे अन्तिम समयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है । ६३१६. क्योंकि नवकबन्धके पहले समयसे लेकर गिनती करने पर वहां पर पूरी दो आवलियां पाई जाती हैं। जो कर्म सवेदीकी उसी द्विचरमावलिके दूसरे समयमें बांधा वह अपगतवेदीके पहले समयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है। $ ३१७. क्योंकि नवकबन्धके पहले समयसे लेकर अपगतवेदके प्रथम समयमें पुरो दो आवलियाँ पाई जाती हैं। शंका-वहाँ जाकर पूरी दो आवलियाँ क्यों होती हैं ? समाधान—क्योंकि सवेद भागकी आवलि सबेदावलि कहलाती है और यदि वह सवेदावलि द्विचरम हो तो द्विचरम सवेदावलि कहलाती है । अव इसके दूसरे समयमें बंधे हुए समय प्रबद्धको विषय करनेवाला काल लेना है, इससे ज्ञात होता है कि अपगतवेदके प्रथम समय तक दो आवलियाँ पूरी होजाती हैं। * इस कारणसे अपगतवेदी जीवको दो समयप्रबद्धोंका लाभ नहीं होता। ६३१८. यतः इस प्रकार सवेद भागकी द्विचरमावलिके प्रथम और द्वितीय समयमें बंधे हुए समयप्रबद्ध अपगतवेदीके प्रथम समयमें नहीं हैं अतः उसके दो समयप्रबद्ध नहीं पाये जाते ऐसा जानना चाहिये ।। _ अब इतने समयप्रबद्ध वहाँ पर अर्थात् अपगतवेदीके हैं इस बातको बतलानेके लिये भागेका सूत्र आया है 8 किन्तु अपगतवेदीके सवेद भागकी दो समय कम द्विचरमावलि और परमावलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy